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(३२१) का अस्थियां (हड्डी) रखते हैं और पुरानी अस्थियां काल के परिपाक से विलीन हो जाती हैं । (२३८-२४२)
विमानस्वाभिनामेतान्यन्येषामपि नाकिनाम् ।
दैवतं मङ्गलं चैत्यमिव पूज्यानि भक्तितः ॥२४३॥
इस डब्बे में रही अस्थियां, दिव्य मांगलिक चैत्य के समान विमान वाले देवों के और अन्य भी देवों के लिए भक्तिपूर्वक पूज्य है । (२४३)
एतत्प्रक्षालन जलाभिषेकेण क्षणादपि । . क्लेशावेशादिका दोषा, विलीयन्ते सुधाभुजाम् ॥२४४॥
इन अस्थियों के प्रक्षालन के पानी के छींटे मात्र से क्षणभर में देवताओं के क्लेश और आवेश आदि दोष नाश (शान्त) हो जाते हैं । (२४४) : एषामाशातना भीताः सभायामिह निर्जराः ।
न सेवन्ते निधुवन क्रीडां क्रीडां गता इव ॥२४५॥
इन अस्थियों की अशातना से भयभीत बने देवता इस सभा के अन्दर लज्जित बने के समान मैथुन क्रीडा नहीं करते हैं । (२४५) .. चैत्य स्तम्भादितः प्राच्या, स्याद्रत्न पीठिकाऽत्रच।
विमाम स्वामिनः सिंहासनं परिच्छदान्वितम् ॥२४६॥ . चैत्य स्तंभ से पूर्व दिशा में रत्न पीठिका होती है । यहां पीठिका के ऊपर विमान के स्वामी देव की पर्षदा से युक्त सिंहासन होता है । (२४६)
तस्यैव चैत्यस्तम्भस्य, प्रतीच्यां मणिपीठिका । विमान स्वामिनो योग्यं, शयनीयं भवेदिह ॥२४७॥
उसी ही चैत्य स्तंभ की पश्चिम दिशा में मणि पीठिका होती है उसके ऊपर विमान स्वामी देव के योग्य शय्या होती है । (२४७).
चैत्य स्तम्भ पीठिका ऽत्र, षोडशा ऽऽयत विस्तृता। अष्टोच्चा योजनान्यर्द्ध मानास्ति स्त्रोऽपरास्ततः ॥२४८॥
इस चैत्य स्तंभ की पीठिका १६ योजन लम्बी-चौड़ी और आठ योजन ऊंची होती है, और दूसरी तीन पीठिका आधे प्रमाण वाली होती है । (२४८)