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नगर जन के समान दूसरे भी पौरस्थानीय देवताओं के अपने-अपने पुण्य अनुसार अनेक सुन्दर प्रासाद होते हैं, इससे वे विमान चौपलों, तीन रास्तों, चार रास्तों आदि से शोभते हैं । बड़े चार मुख्य रास्तों से चारों तरफ से ये विमान युक्त है तथा किला झरोंखा और द्वार तोरणो से ये विमान शोभायमान होते हैं । (२२१ से २२३)
पूर्वोक्त मूल प्रासादादथैशान्यां भवेदिह । सभा सुधर्मा तिसृषु दिक्षु द्वारैस्त्रिभिर्युताः ॥२२४॥ प्राच्यां याम्यामुदीच्यां च भान्ति द्वारणि तान्यपि ।
अष्टभिर्मङ्गलैरछत्रैर्विराजन्ते ध्वजादिभिः ॥२२५॥ . . .
पूर्वोक्त मूल प्रसादो से ईशान कोने में सुधर्मा सभा होती है जो तीन दिशा में तीन द्वार से युक्त होती है ये द्वार पूर्व दक्षिण और उत्तर दिशा में रहते हैं, और उन तीन द्वारों पर अष्ट मंगल, तीन छत्र और ध्वज आदि शोभायमान है । (२२४-२२५)
प्रतिद्वारमथैकैको, विभाति मुखमण्डपः । , त्रिभिद्वारैर्युतः सोऽपि, सभावद् रम्य भूतलः ॥२२६॥
इसके प्रत्येक द्वार पर एक-एक मुख मंडप होता है और उसके भी सभा के समान तीन द्वार और रमणीय भूमिभाग होता है । (२२६),
प्रतिद्वारमथ मुखमण्डपानां पुरः स्फुरन् । प्रेक्षागृह मण्डपः स्यात्रिद्वार: सोऽपि पूर्ववत् ॥२२७॥ ·
इस मुख मंडप के भी प्रत्येक द्वार के आगे विभाग में प्रेक्षा गृह मंडप होता है और वह भी पूर्व के समान तीन द्वार से युक्त होता है । (२२७) .
प्रेक्षागृह मण्डपानां, मध्ये वज्राक्ष पाटकः । सिंहासनान्विता तत्र, प्रत्येकं मणिपीठिका ॥२२८॥ ..
प्रेक्षागृह मंडप के मध्य में वज्ररत्न का अक्ष पाटक-पासा. रखने का पट्टा होता है और प्रत्येक अक्षपाटक पास में सिंहासन से युक्त मणिपीठिका होती है ।
प्रतिद्वार तथा प्रेक्षागृह मण्डपतः पुरः । मध्ये चैत्यस्तूपयुक्ताश्चतस्रो मणिपीठिकाः ॥२२६॥ .
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