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.. (३१७) . मध्य में विमान स्वामी के पचासी (८५) प्रासाद होते हैं किसी स्थल में विमान के उपरिकालयन ऊपर तीन सौ इकतालीस प्रासाद होते हैं उसमें कहा है कि किसी स्थान पर तेरह सौ पैंसठ (१३६५) प्रसाद हैं । इस प्रकार से तीन भेद हो होते हैं।" एवं च - अन्य स्वर्गेष्वपि मूल प्रासादोन्नत्य पेक्षया।
अर्द्धार्द्धमानः प्रासाद परिवारों विभाव्यताम् ॥२१७॥ इसी प्रकार अन्य देवलोक में भी मूल प्रासाद की ऊंचाई की अपेक्षा से आधी-आधी ऊंचाई वाले परिवार प्रासाद (परिवार के देवों का प्रासाद) समझना । (२१७)
अमी समग्रा प्रासादा वैडूर्यस्तम्भशोभिताः । उत्तुङ्ग तोरणा रत्नपीठिकाबन्धबन्धुराः ॥२१८॥ विमानस्वामिसंभोग्यरत्नसिंहसनान्चिताः । यद्वाहँ तत्परीवार सुरभद्रासनै. रपि ॥२१६॥
ये सभी प्रासाद वैडूर्य रत्न के स्तंभ से शोभायमान होते हैं । वे ऊंचे तोरण और रत्न पीठिका बंध से सुन्दर होते हैं । विमान के स्वामी देवता के उपयोग करने योग्य रत्न सिंहासन से युक्त हैं । और योग्यता अनुसार परिवार देवताओं के भद्रासन से भी वह प्रासाद संपन्न होता है । (२१८-२१६)
एवं सामानिका दीनामपि संपत्ति शालिनाम् । रम्या भवन्ति प्रासादा स्वर्णरत्नविनिर्मिताः ॥२२०॥
इस तरह से संपत्ति शाली सामानिकादि देवों के भी स्वर्ण रत्न से बने हुए सुंदर प्रासाद होते हैं । (२२०) । · पौर स्थानीय देवानामन्येषामप्यनेकशः ।
स्व स्व पुण्यानुसारेण, प्रासादाः सन्ति शोभनाः ॥२२१॥ तत एव विमानास्ते, शृङ्गारकैरलङ्कृताः । त्रिकैश्चतुष्कै रपि च चत्वरैश्व चतुष्पथैः ॥२२२॥ चतुर्मुखैरपि महापथैः समन्ततोऽन्चिताः । प्राकाराट्टालक वरचरिकाद्वारतोरणैः ॥२२३॥