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(३१४) परितस्तां पद्म वरवेदिका स्याद्वनान्चिता । गवाक्षजालाकृतिना, रत्नजालेन राजिता ॥२०१॥
उस पीठिका के चारों तरफ वन से युक्त पद्मवर वेदिका है जो कि गवाक्ष जाल की आकृति समान रत्नजालों से शोभायमान है । (२०१)
तथासौ किङ्किणी जालै मणि युक्तादि जाल कैः। घण्टा जालैः स्वर्ण जालैः, परिक्षिप्ता ऽब्जालकैः ॥२०२॥ ...
तथा यह मणीमय पीठिका चारों तरफ से घुघरी मणि मोती की घंटा, सोना तथा कमल की जालियों से लिप्त हुई है । (२०२) .
चतुर्दिशं त्रिसोपान प्रति रूपक मन्जुला । .. ध्वजतोरण सच्छत्रातिच्छत्राढयानि तान्यपि ॥२०३॥
यह पीठिका चारों दिशा में तीन-तीन सोपान की पंक्ति से शोभते है और उन प्रत्येक सोपान की श्रेणि ध्वज, तोरण छत्र के ऊपर छत्र आदि से युक्त है । (२०३) . मध्ये स्यादुपकार्याया, विमान स्वामिनो महान् ।
योजनानां शतान् पन्चोत्तुग प्रासाद शेखरः ॥२०४॥
उपकार्या इस वेदिका के मध्य विभाग में विमान के स्वामी देव पांच सौ योजन ऊंचे श्रेष्ठ प्रासाद शिखर है । (२०४).
मूल प्रासादात्समन्तात्, स्युः प्रासादावतंसकाः । चत्वारो द्वे शते साढ़ें, योजनानां समुच्छ्रिताः ॥२०५॥
मूल प्रसाद के चारों तरफ चार प्रासादावतंसक है जोकि अढाई सौ योजन ऊंचा है । (२०५)
तेषां चतुर्णां प्रत्येकं, चत्वारो ये चतुर्दिशम् । प्रासादास्ते योजनानां, शतं सपादमुच्छ्रिताः ॥२०६॥
उन चार प्रासादवतंसक के चारों दिशा में चार प्रासाद है जो कि सवा सौएक सौ पच्चीस योजन ऊंचे हैं । (२०६)