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(३१३) शिलापट्ट विभान्त्येषु, मण्डपेषु गृहेषु च । हंस क्रौंच्चादि संस्थाना, नानारविनिर्मिताः ॥१६५॥ तेषु वैमानिका देवा, देव्यश्च सुखमासते । तिष्ठति शेरतेस्वैरं, विलसन्ति हसन्ति च ॥१६॥ सुकृतानां प्राक्कृतानां भूयसां भुज्जते फलम् । शमयन्त इव प्राच्यतपःसंयमजं श्रयम् ॥१६७॥
इन मंडप और गृहों में विविध प्रकार के रत्नों से निर्मित्त हंस कौंचादि के आकार वाले शिलापट्ट शोभते हैं । उस-उस स्थानों में वैमानिक देव देवियां सुखपूर्वक बैठते हैं, खड़े रहते हैं, इच्छापूर्वक आराम करते हैं, विलास करते हैं, हंसते हैं और इस तरह मानो पूर्व जन्म के तप-संयम के थकावट को उतारते हो, अपना पूर्वकृत सुकृतों का फल भोगते हैं । (१६५-१६७)
मध्ये वनमथै कै कः, प्रासादस्तत्रतिष्ठति ।
वनाधिकारी प्रत्येकं , सुरो वनसमाभिधः ॥१६८॥
प्रत्येक वन के अन्दर एक-एक प्रासाद है और प्रत्येक प्रासाद में वनसम नामक वनाधिकारी देव रहता है । (१६८) . .
एवमेषां विमानानां, बहिर्भागो निरूपितः ।।
अन्तर्भागो विमानाना यथाऽऽम्नायमथोच्यते ॥१६॥
इस तरह से इन विमानों का बाह्य विभाग का वर्णन किया गया है । अब विभागों में अन्तर विभाग का परम्परा अनुसार वर्णन करता हूं । (१६६)
मध्यदेशे बिमानानामुपकार्या विराजते । एषा च राजप्रासादवतंसकस्य पीठिका ॥२०॥
विमानों के मध्य विभाग में उपकार्या पीठिका विशेष शोभती है और यह राज प्रासादवतंसक नाम की पीठिका कहलाती है । (२००) ।
उक्तं च - "गृह स्थानां स्मृता राज्ञा मुपकार्योप कारिके" ति ।
उपकार्या - गृहस्थ राजाओं को उपकारक है, कहा है कि "गृहस्थ राजाओं का उपकारिका हो वह उपकार्या कहलाता है ।'' इसके अनुसार यहां भी समझना।