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तासु तासु पुष्करिण्या दिषु भान्ति पदे पदे । क्रीडार्हा मण्डपाः शैला, विविधान्दोलकाअपि ॥१८६॥
उस-उस पुष्करिणी आदि में स्थान-स्थान पर क्रीड़ा योग्य मंडप, पर्वत और विविध प्रकार के झरने भी शोभते हैं । (१८६)
वैमानिका यत्र देवा, देव्यश्च सुखमासते ।
प्रायः सदा भवधारणीयाङ्गेनारमन्ति च ॥१६०॥ . .. जहां वैमानिक देव और देवियां सुखपूर्वक रहते हैं वहां वे प्रायः भवधारणीय शरीर द्वारा हमेशा रमन करते हैं । आनंद का अनुभव करते हैं । (१६०)
तत्र क्रीडामण्डपादौ, हंसासनादि कान्यथ । ..
आसनानि भान्ति तेषां भेदा द्वादश ते त्वमी ॥१६१ ॥ हंसे कोंचे गरुडे ओणय पणए य दीह भद्दे य । पक्खी मयरे पउमे सीह दि सासोत्थि बार समे ॥१६॥
वहां क्रीडा मंडपादि में हंसासन आदि बारह प्रकार के आसन शोभायमान है । वह भेद इस प्रकार से - १- हंसानन, २- कौंच्चासन, ३- गरुडासन, ४अवनतास न (नमा हुआ आसन), ५- प्रणतासन, ६- दीर्घासन (लम्बासन), ७भद्रासन, ८- पक्षी आसन, ६- मकरासन, १०- पद्मासन (कमलासन), ११सिंहासन, १२- दिशास्वस्तिकासन होते हैं । (१६१-१६२)
वनखण्डेषु तेष्वेवं राजन्ते जाति मण्डपाः । यूथिकामल्लिका नाग वल्ली द्राक्षादि मण्डपाः ॥१६३॥
उस वन खण्डों के अन्दर जुई चमेली, नागर वेल, दाक्षा तथा जावित्री के श्रेष्ठ मंडप शोभते हैं । (१६३)
आस्थान प्रेक्षण स्नानालङ्कारादि गृहाण्यपि । शोभन्ते मोहन गृहाः सुरतार्थं सुधाभुजाम् ॥१६॥
सभा गृह प्रेक्षक गृह, स्नान गृह, अलंकार गृह तथा सुधा भोजन देवताओं के भोग के लिए मोहन गृह भी शोभायमान है । (१६४)