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(३११). चतुर्दिशं विमानेभ्यस्तेभ्यः पन्चशतोत्तराः । चारो वनखण्डाः स्युर्माना वृक्षालिमण्डिताः १८३॥
उन विमानों के चारों दिशा में विविध प्रकार की वृक्ष श्रेणि से शोभायमान ५०४ वन खंड होते हैं । (१८३)
प्राच्यामशोक विपिन, याम्यां सप्तच्छदाभिधम् ।। प्रतीच्यां चम्पक वनमुद गाम्र वणं तथा ॥१८४॥
उसमें पूर्वदिशा में अशोक वन दक्षिण दिशा में सप्तछद वन, पश्चिम दिशा में चंपकवन और उत्तर दिशा में आम्रवन होता है । (१८४)
प्रत्येकं वन खण्डास्ते, प्राकरेण विभूषिताः । .. पन्च वर्ण मणि तृणवरेण्य समभूमयः ॥१८५॥
वह प्रत्येक वन खण्ड परकोटे से परिमंडित होता है और पंचवर्णी मणि एवं श्रेष्ठ घास से युक्त समतल भूमि वाला होता है । (१८५)
सरस्यो वापिकाश्चैषु पुष्करिण्यश्च दीर्घिकाः ।। रूप्य कूलास्तपनीयतलाः सौवर्ण वालुंकाः ॥१८६॥
बड़े-बड़े सरोवर, वावडियां जिसमें नीचे उतरने के लिए सौपान होते हैं, कमल सरोवर, बड़े कुए उस वन खंड में होते है उसके किनारा और कांठा चान्दी का और फर्श स्वर्णमय तथा रेती सुवर्ण की होती है । (१८६)
जात्यांसवधृत क्षीर क्षोद स्वादूदकाश्चिताः । क्रीड्दप्सरसां वक्त्रैः पुनरूक्ती कृताम्बुजाः ॥१८७॥ चतुर्दिशं त्रिसोपान प्रतिरूप कराजिताः । 'विभान्ति तोरणैश्छत्रातिच्छत्रैश्च ध्वजैरपि ॥१८८॥ (त्रिभि)
उन वावडी आदि में जातिवान आसव, विशेष रस, धी, खीर और सक्कर समान स्वादिष्ट मधुर पानी है और क्रीड़ा करती अप्सराओं के मुंह से दो कमल वाली हो इस तरह लगती है (१८७) इन वावडियों के चारों दिशा में तीन-तीन सोपान की पंक्ति से तथा तोरण छत्र बड़े छत्र और ध्वजाओं से भी शोभायमान हो रही है । (१८२)