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________________ (३१०) केवली ज्ञानी के चित्त में जैसे संशय नहीं टिक सकता है वैसे इन स्थानों में अंधकार भी कण भर नहीं रह सकता है । (१७६) अहोरात्र व्यवस्थापि, न भवेत्तेषु कर्हिचित् । दुरवस्थेव गेहेषु, जाग्रत्पुण्यौधशालिनाम् ॥१७७॥ प्रगर पुण्य प्रभावशाली-पुण्यात्माओं के घर में जैसे दुःखी अवस्था नहीं होती है वैसे इन विमानों में अहोरात्रि की व्यवस्था भी नहीं होती है । (१७७) व्यवहारस्त्वहोरात्रादिकोऽत्रत्यव्यपेक्षया । ततएव च तत्रत्या गतं कालं विदन्ति न ॥१७॥ अहो रात्रि की व्यवस्था यहां मृत्यु लोक की अपेक्षा से है, शेष वहां यह व्यवस्था न होने के कारण से उस विमान में रहे देव आदि व्यतीत हुए काल को जानते भी नहीं है । (१७८) चन्दनागुरुचन्द्र णमदकश्मीरजन्मनाम् . । यूथिकाचम्पकादीनां, पुष्पाणां च समन्ततः ॥१७६ ॥ यथा विकीर्यमाणानां, सौरभ्यमिह जृम्भते । घाणा घाणकरं पीयमानमुत्फुल्लनासिकैः ॥१८०॥ ततोऽपीष्ट तरस्तेषां, विमानानां स्वभावंतः ।। स्वाभाविकः परिमलः पुष्पाति परमां मुदम् ॥१८१॥ त्रिभिर्विशेषकं॥ फैलती चंदन, अगरू, कपूर, कस्तुरी, क्रेशर की सुरभि तथा बिखरे हुए जोई चंपा आदि पुष्पों का परिमल जैसे चारों तरफ फैल जाता है और फूली हुई। नासिका वाले लोकद्वारा नाकको सराबोर करने वाले इस सुरभि का पान किया जाता है इससे भी अधिक इष्टतर इन विमानों का स्वाभाविक परिमल-सुगंध होताहै जो कि परमानंद को पुष्ट करने वाला है (१७६-१८१) रू तबूर नवनीत शिरीष कुसुमादितः । । तेषामति मृदुः स्पर्शः स्वाभाविकः सनातनः ॥१८२॥ . रूई, बूर नाम की वनस्पति, मक्खन और शिरीष पुष्प के भी अति कोमल स्पर्श यह इन विमानों का स्वभाविक और सनातन होता है । (१८२)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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