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(३०६) और इससे ही जिनेश्वर भगवान के जन्मादि कल्याणक के आनंद समूह से उत्सुक बने देवता अचिंत्य सामर्थ्य से अत्यंत शीघ्रगामी होने से अत्यंत भक्ति से अच्युता आदि देवलोक में से आकर श्री अरिहंत भगवान के कल्याणक उत्सव मनाकर अपनी आत्मा को कृतार्थ करते हैं । (१६६-१७०)
इट्टशानि विमानानि, महान्त्याद्यद्वितीययोः । स्वर्गयोः पन्चवर्णानि, विराजन्ते प्रभाभरैः ॥१७१॥
प्रथम दो देवलोक में पांचवर्ण के ऐसे बड़े विमान कान्ति के समूह से जो शोभायमान होते हैं । (१७१)
जात्यान्जनमयानीव, स्युर्मेचकानि कानिचित् । इन्द्रनीलरत्नमयानीव नीलानि कानिचित् ॥१७२॥ पद्मरागमयानीव, रक्तवर्णानि कान्यपि । स्वर्णपीतरलमयानीव पीतानि कानिचित् ॥१७३॥ कानि चिच्छुक्लवर्णानि, क्लुप्तानि स्फटिकैरिव।
सर्वाणि नित्योद्योतानि, भासुराणि प्रभाभरैः ॥१७४॥ - कोइ विमान जात्य अंजन रत्नमय होते ऐसा कृष्णवर्णीय होता है, कई इन्द्र नील रत्नमय हो ऐसे नीलवर्णीय है, कई पद्म राग रत्नमय है । इस तरह रक्तवर्ण वाले है, कई सुवर्ण पीले रत्नमय हो ऐसे वर्ण के है और कई मानो स्फटिक के बने हो इस प्रकार.शुक्ल वर्ण वाले हैं । इस तरह ये सब विमान नित्य उद्योत वाले और कान्ति से देदीप्यमान है । (१७२-१७४)
यथा निरभ्रनभसि, मध्याह्नेऽनावृत स्थले । इह प्रकाशः स्यात्तेषु, ततः स्फुटतरः सदा ॥१७५॥
जैसे बादल बिना के आकाश में मध्याह्न समय में खुले स्थान में अति प्रकाश होता है उससे अधिक स्पष्ट प्रकाश उस देव विमान में होता है । (१७५)
तमःकणेन न कदाप्येषु स्थातुं प्रभूयते । संशयेनेव चेतस्सु, केवलज्ञान शालिनाम् ॥१७६॥