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________________ (३०८) . छ: महीने तक चलता है तब इतने काल में कोई विमान का पार प्राप्त कर सकता है, तो कोई विमान का पार नहीं कर सकता है ।' इत्यादि - कस्मिन्नमी देवलोके, विमानाः स्वस्तिकादयः । विजयादीन् विना सम्यगेतन्न ज्ञायतेऽधुना ॥१६४॥ विजयादि विमानों को छोडकर कौन से देवलोक में यह स्वस्तिकादि विमान है वह स्पष्ट रूप में दिखता नहीं है । (१६४) . . ननु चण्डादि गतिभिः, षण्मास्या तादृशैः क्रमैः। ... न केषांचिद्वमानानां, पारं यान्ति सुरा यदि ॥१६५॥ तद् द्रुतं जिन जन्मादि कल्याणकोत्सवार्थिनः । . तस्मिन्नेव क्षणे तत्तत्स्थानमायान्तयमी कथम् ॥१६६॥ युग्मं ।। यहां प्रश्न करते हैं कि चंडादि गति द्वारा से, उसी प्रकार के कदम द्वारा छह महीने में किसी विमान को देवता पार नहीं हो सकता है, तो फिर श्री जिनेश्वर भगवान के जन्मादि कल्याणक महोत्सव के अर्थी देवता उसी ही समय में उस स्थान में किस तरह आ सकता है ? (१६५-१६६) अत्रोच्यते – गतिक्रमा विमावुक्तौ, पल्योपमादि पल्यवत् । विमानमान ज्ञानाय, कल्पितौ न तु वास्तवौ ॥१६७॥ वास्तवी तु गतिर्दिव्या, दिव्यः क्रमश्च वास्तवः । अत्यन्तसत्वरतरौ, तथा भवस्वभावतः ॥१६८॥ इसका उत्तर देते हैं कि - गति और कदम जो कहा है, वह पल्योपम के प्याले की कल्पना के समान विमान का प्रमाण जानने के लिए कल्पना से कहा है परन्तु वह वास्तविक नहीं है । (१६७) इस प्रकार के भव-जन्म स्वभाव से देवों का वास्तविक दिव्यगति और दिव्य कदम अत्यन्त वेग वाले होते हैं । (१६८) ततश्च जिन जन्मादि प्रमोद प्रचयोत्सुकाः । सुरा अचिन्त्य सामा•दत्यन्तं शीघ्रगामिनः ॥१६६॥ अच्युतादि ककल्पेभ्यो ऽभ्युपेत्य प्रौढ भक्तयः । स्वं स्वं कृतार्थयत्यर्हत्कल्याणकोत्सवादिभिः ॥१७०॥ A
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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