________________
(३०५)
अच्युतान्तेषु चाष्टासु व्यासादी न्मिनुया क्रमात् । क्र मैद्वितीय जातीयैरादयादि गतिभिर्युतैः ॥१४७॥
अच्युत देवलोक तक के आठ देवलोक में दूसरी तरह के कदम से क्रमश: व्यास आदि को पूर्व समान मापता है ।व्यासादि चार प्रकार में गति क्रमशः चार है, परन्तु कदम दूसरे तरह का है । (१४७)
ग्रैवेयकेषु नवसु, विष्कम्भादीन्मिनोति सः । क्रमैस्तृतीय जातीयै श्चतुगर्ति युतैः क्रमात् ॥१४८॥
नौ ग्रैव्यक के अन्दर तीसरी जाति के कदम से चार गति द्वारा चौड़ाई आदि को मापता है । व्यास, लम्बाई, अंतर परिधि, बाह्य परिधि में क्रमशः चंडादि गति है परन्तु कदम तीसरी जात का है । (१४८)
विजयादि विमानेषु, चतुर्वापिमिनोत्यसौ । विष्कम्भादि क्रमैस्तु यैश्चतुर्गति समन्वितैः ॥१४६॥
विजयादि चार विमान में चौथी जाति के कदम से चौड़ाई आदि का माप है वह चतुर्थ गति है । (१४६) . .
. विमानमेकंमप्येष, मासैः पङ् िभरपि स्फुटम् । ___ पूर्णं न गांहते संन्ति विमानानी दृशान्यपि ॥१५०॥
इस तरह के कदम से छ: महीने तक भ्रमण करने पर भी एक विमान का अवगाहन नहीं कर सकता है, ऐसे भी विमान है । (१५०)
जीवाभिगम सूत्रे तु भेदांश्चण्डादिकान् गतेः । व्यासादि चाविवक्षित्वा, विमान मानमीरितम् ॥१५१॥
श्री जीवाभिगम सूत्र में तो गति चंडा आदि भेदों की और व्यासादि की विवक्षा बिना ही विमान का माप कहा गया है । (१५१)
तणाहि- स्वस्तिकं। स्वस्तिकावर्ते२ स्वस्तिक प्रभमित्यपि३ ।
. तुर्यं स्वस्तिक कान्ताख्यं४, परं स्वस्तिक वर्णकम्५ ॥१५२॥ षष्ठं स्वस्तिकलेश्यारव्यं६, सप्तम स्वस्तिक ध्वजम् । अष्टमं स्वस्तिकसितं ८, स्वस्तिक कूटमित्यथ ॥१५३॥