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तुर्यस्तु ब्राह्य परिधिं मिमीषुरन्तिमैः क्रमैः । विमानमभितो वंभ्रमीति गत्या तुरीयया ॥१४२॥ मिन्वन्त एवं षण्मासान् येषां पारं न ते गताः । सौधर्मादिषु सन्त्येवं विधाः केचिद्विमानकाः ॥१४३॥
मानो कि शास्त्रों के स्वरूप को पार प्राप्त किया हो, ऐसे कोई चार देवता एक ही साथ में किसी एक विमान को पार करने के लिए उपस्थित हए हो उसमें से एक देव चंडा गति से प्रथम क्रम से विमान के विस्तार को अमित बने बिना छः महीने तक मापता है । दूसरा देव चपला नाम की दूसरी गति से दूसरे क्रम से उस विमान की लम्बाई मापता है । दूसरा देव चपला नाम की दूसरी गति से दूसरे क्रम से उस विमान की लम्बाई मापता है । तीसरा बुद्धिमान देव तीसरी गति से तीसरे क्रम से विमान की मध्य परिधि को (अन्दर की लम्बाई-चौड़ाई) को मापता है
और चौथा देव चौथी गति से चौथे-चौथे क्रम से विमान की बाह्य परिधि को मापने की इच्छा वाला विमान के चारों तरफ भ्रमण करता है यानि प्रदक्षिणा देता है । इस तरह छ: महीने तक मापते वे विमान का पार नहीं प्राप्त करता है । ऐसे कई विमान सौधर्म आदि देवलोक में होते है । (१३८-१४३)
अथ प्रकारान्तरेण, परिमाणं निरूप्यते । सौधर्मादि विमानानामनुत्तराश्रयावधि ॥१४४॥
अब सौधर्म देवलोक से लेकर अनुत्तर देवलोक तक के विमानों का माप दूसरे रूप में कहा जाता है । (१४४) .
क मैः प्रथम जातीयैराद्यस्वर्गचतुष्ट ये । . विष्कम्भ चण्डया गत्याऽऽयामं चपलया पुनः ॥१४५॥ जवनयाऽनतः परिधिं, बाह्यं गत्या च वेगया । मिनुयान्निज़र कश्चिद्विमानमतिकौतुकी ॥१४६॥ ...
प्रथम चार देवलोक के अन्दर कोई अति कौतुकी देव विमान को प्रथम तरह के कदम से मापता है और इस तरह से चंडा गति से चौड़ाई, चपला गति से लम्बाई जवना गति से अन्दर की परिधि और वेगागति से बाह्य परिधि को मापता है । (चार गति में प्रथम तरह का ही कदम है ।) (१४५-१४६) .