________________
(३०३)
(६६१६८६- ५४/६०) योजन होता है यह माप एक कदम होता है, पूर्वोक्त दोनों प्रकार से भी बड़ा श्रेष्ठ कंदम होता है । (१३२-१३३)
अर्कोदयास्तान्तरेऽथ, नवभिर्गुणिते सति । एष दिव्यः क्रमस्तुर्यः स्यान्महान् प्राक्तनत्रयात् ॥१३४॥
अर्ध्या ‘न्यष्ट लक्षाणि, योजनानां शतानि च । . सप्तैव चत्वारिंशानि, कलाश्चाष्टा दशोपरि ॥१३५॥
पूर्व कहे अनुसार सूर्य के उदय अस्त के अन्तर को नौ से गुणा करने से आठ लाख. पचास हजार सात सौ चालीस योजन और साठ में अठारह अंश (८,५०७४०- १८/६०) योजन होता है । यह दिव्य कदम पूर्वोक्त तीन कदम से भी बढ़कर होते हैं । (१३४-१३५) . .. चण्डा चपला जवना; वेगा चेति यथोत्तरम् ।
चतस्रो दिव्यगतयः शीघ्र शीघ्रतराः स्मृताः ॥१३६॥
इस तरह से देव की चंडा-चपला, जवना और वेगा ये चार गतियां क्रमशः वेग वाली, शीघ्र शीघ्रतर कहीं है । (१३६)
केचिद्वेगाभिधानां तु, तुरीयां मन्वते गतिम् । नाम्ना. जवनतरिकामभिन्नां च स्वरूपतः ॥१३७॥
कई आचार्य चौथी वेगागति को नाम से जवन तारिका मानते हैं परन्तु स्वरूप में कुछ भी अन्तर नहीं है । (१३७)
कस्याप्यथ विमानस्य, पारं प्राप्तुमुपस्थिताः । शास्त्रस्येव प्राप्तरूपाश्चत्वारो युगपत्सुराः ॥१३८॥ एकस्तस्य विमानस्य, मिनोति तत्र विस्तृतिम् । आद्य क्रमेणाधगत्या, षण्मासान् यावद श्रमम् ।।१२६॥ द्वितीयः पुनरायामं तस्य मातुमुपस्थितः । क्र मैर्द्वितीयजातीयैर्गत्याऽपि चपलाख्यया ॥१४०॥ तृतीयो मध्यपरिधि, मिमीते मतिमान् सुराः । क्रमैस्तृतीयजातीयैर्गच्छन् गत्या तृतीयया ॥१४१॥