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जगत्स्वभावदेवासौ, स्पन्दते न हि कर्हिचित् । विमानाअपितत्रस्था, न जीर्यन्ति कदाचन ॥१०२॥
इन विमानों की पृथ्वी धनोदधि ऊपर रही है, जमे हुए पानी का धनोदधि रूप कहलाता है। जगत् स्वभाव से कुदरत रूप में ही यह धनोदधि कभी भी परिवर्तन नहीं है और उसके ऊपर विमान भी कभी भी जीर्ण नहीं होते । (१०१-१०२)
धनोदधिः स चाकाश एवाधार विवर्जितः । निरालम्बः स्थितश्चित्रं स्वभावाज्जयोतिषादिवत् ॥१०३॥ ..
ज्योतिषादि विमानों के समान स्वभाव से ही यह धनोदधि आधार रहित, निरालम्बन रूप आकाश में ही रहते हैं, वह आश्चर्यकारी है । (१०३)
महानगरकल्पानि, विमानानि भवन्त्यथ । प्राकाराश्च तदुपरि, वनखण्ड परिष्कृताः ॥१०४॥
ये विमान महानगर के समान विशाल होते हैं और उसके ऊपर के प्राकारपरकोटा किले, वनखंडों से शोभते हैं । (१०४) .
प्राकरास्ते योजनानां, समुत्तुङ्गाः शतत्रयम् । शतं तदर्द्धं तत्पादं, मूलमध्योर्ध्व विस्तृताः ॥१०५॥
इसके परकोटे तीन सौ योजन ऊंचे हैं और विस्तार में मूल मध्य और ऊपर के विभाग में क्रमशः सौ, पचास और पच्चीस योजन है । (१०५) . चतुरिसहस्राढया, द्वारमेकै कमुच्छ्रितम् ।
। योजनानां पन्चशती, साढे द्वे च शते ततम् ॥१०६॥
चार हजार द्वार वाला यह परकोट है उसमें एक-एक द्वार पांच सो योजन ऊंचा और दो सौ पचास योजन चौड़ा है । (१०६)
चक्र मृग गरुडर्भच्छत्र लसत्पिच्छ शकुनि सिंह वृषाः। ,
अपि च चतुईन्त गजा:१० आलेख्यै रेभिरति रम्याः ॥१०७॥ .
१- चक्र, २- मृग, ३- गरुड,४- भालू ५- छत्र, ६- देदीप्यमान, मोर पख, ७- समडी, ८ सिंह, ६-वूषभ, १० चार दांत वाला हाथी, इस प्रकार के चित्रों से यह द्वार अतीव रमणीय होता है । (१०७)