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________________ (२६६) प्रत्येकं शतमष्टाधिकमेते केतवो विराजन्ते । साशीतिसहस्त्रं ते सर्वेऽप्यत्र प्रतिद्वारम् ॥१०८॥आर्ये ।। इस प्रकार चित्रों से युक्त १०८ ध्वजाएं होती है । इस तरह कुल एक हजार अस्सी ध्वजाएं प्रत्येक द्वार पर शोभायमान होती है । (१०८) शेषं द्वारवर्णनं च श्रीसूर्याभविमानवत् । - राजप्रश्नीयतो ज्ञेयं, नात्रोक्तं विस्तृतेर्भयात् ॥१०६॥ द्वारों का शेष वर्णन श्री सुर्याभ विमान के समान है जो राजप्रश्नीय सूत्र से जान लेना चाहिए । यहां विस्तार के भय से नहीं कहा । (१०६) विस्तृतानि योजनार्द्धमायतान्येकयोजनम् । . प्राकारकपिशीर्षाणि, नानामणिमयानि च ॥११०॥ उन किलों के अलग-अलग प्रकार के रत्नमय बने कांगडे आधा योजन विस्तृत और एक योजन लम्बे होते हैं । (११०) प्रासादास्तेषु देवानां, सन्ति रत्नविनिर्मिताः । .. तत्रैतयोस्ताविषयोर्विमानानां वसुन्धरा ॥१११ ॥ . इस विमान के अन्दर देवताओं का रत्न निर्मित प्रसाद है, उसमें ही इस देवलोक की पृथ्वी है, अर्थात स्वर्ग लोक की भूमि वही विमान की भूमि है । (१११) योजनानां शताः सप्त विंशतिः पिण्डतो भवेत् । प्रासादश्च तदुपरि, प्रोक्ताः पन्चशतोन्नताः ॥११२॥ इन विमानों के धरातल की मोटाई सताईस सौ योजन है, और उसके ऊपर पांच सौ योजन ऊंचे प्रासाद है । (११२) इदमुच्चत्व मानं तु, मूल प्रासाद गोचरम् । प्रासादपरिपाटयस्तु, तदर्भार्द्धमिता मताः ॥११३॥ यह ऊंचाई का प्रमाण मुख्य प्रासाद का समझना । उसके बाद के प्रासाद श्रेणियों की ऊंचाई आधी-आधी प्रमाण कही है । (११३)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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