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पव्वेण पच्छिमेण यजे वट्टा तेऽपिदाहिणिल्लाणं। तंस चउरंसगा पुण सामन्ना हुंति दुहंपि ॥८०॥"
यह बात संग्रहणी की टीका में भी कहा है - "इन्द्रक विमान से दक्षिण दिशा में दक्षिण श्रेणि और इन्द्रक विमान से उत्तर दिशा में उत्तर श्रेणि से सौधर्म
और ईशान इन्द्र की है पूर्व और पश्चिम दिशा की श्रेणि दोनों इन्द्रों को समान है । उसमें मध्य के इन्द्रक गोलकार विमान है वह सौधर्मेन्द्र के है । जबकि त्रिकोण और चोरस विमान दोनों इन्द्रों के समान होते हैं । (७८-८०)"
प्रत्येकं त्वथ सौधर्मेशानयोर्देवलोकयोः । वृत्तादीनां पंक्तिगानां संख्यैवं गदिता श्रुते ॥१॥
सौधर्म और ईशान देवलोक के वृत्त आदि पंक्ति गत विमानों की संख्या आगम में इस तरह से कही है । (८१) ।
सप्तविंशा सप्तशती, वृत्तानां प्रथमे भवेत् । ... त्रिकोणानामथ चतुर्नवत्याढया चतुःशती ॥२॥ चतुष्कोणानां च चतुः शत्येव षड्शीति युक्त् । शतान्येवं सप्तदश, सप्तोत्तराणि पक्तिगाः ॥३॥
प्रथम देवलोक में गोलाकार विमान सातसौ सत्ताईस (७२७) है त्रिकोण विमान चार सौ चौरानवे है और चतुष्कोण विमान चार सौ छियासी होते है इस तरह सम्पूर्ण पंक्तिगत विमानों की कुल संख्या सत्रह सौ सात (१७०७) विमान की होती है । (८२-८३)
लक्षाण्येकत्रिंदशदष्टानवतिश्च सहस्रकाः । १द्वै शते त्रिनवत्याढये, इह पुष्पावकीर्णकाः ॥८४॥
एषां योमे तु पूर्वोक्ता लक्षा द्वात्रिंशदेव ते । ईशानेऽप्यथ वृत्तानामषष्टत्रिशं शतद्वयम् ॥८५॥
इस देवलोक में पुष्पावकीर्ण विमान इक्तीस लाख, अठानवे हजार दो सौ तिरानवे (३१६८२६३) संख्या में पंक्तिगत विमानों के साथ में इस पुष्पावकीर्णक विमान का कुल जोड़ करने से प्रथम देवलोक के पूर्वोक्त बत्तीस लाख विमान