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(२८६)
स्थितान्यूर्ध्वसमश्रेण्या, चरमैकै कहानितः । द्वितीय प्रस्तटस्येति, स्वयं भूरमणाम्बुधौ ॥२६॥ त्रिंशत्रिशद्विमानानि, प्रतरेऽनुत्तरे त्वतः ।
भवेद्विमानमेकैकं , देव द्वीपे चतुर्दिशम् ॥२७॥
ये सब विमान ऊपर समश्रेणि से रहे है और प्रत्येक श्रेणी में अन्तिम एकएक विमान कम होता है । इस तरह दूसरे प्रस्तर में स्वयंभूरमण समुद्र के ऊपर के एक-एक विमान कम होता जाय और इस तरह से ३०-३० विमान घटते अनुत्तर देवलोक में चारों तरफ एक एक विमान होता है, वह देव द्वीप के ऊपर जाता है । (२६-२७)
एवं पंडिक्त विमानानामन्तरं नियमान्मिथः ।
असंख्येयानीरितानि, योजनानि जिनेश्वरैः ॥२८॥
इस तरह पंक्ति में रहे विमानों का अरस-परस एक दूसरे का अन्तर जिनेश्वर भगवान ने असंख्य योजन कहा है । (२८) · पुष्पावकीर्णानां त्वेषां, संख्येययोजनात्मकम् ।
के षांचित्केषांचिदसंख्ये योजनसंमितम् ॥२६॥
दो श्रेणि की बीच की विदिशाओं में रहा पुष्पवकीर्ण विमानों का परस्पर अन्तर किसी का संख्यात योजन है और किसी का अन्तर असंख्यात योजन है । (२६)
विमानमिन्द्रकं यत्तु प्रतरेष्वरिवलेष्वपि । मेरोरूर्ध्व समश्रेण्या, तदुपर्युपरि स्थितम् ॥३०॥
प्रत्येक प्रतर के इन्द्रक विमान मेरू पर्वत के ऊपर सम श्रेणि में रहा है । (३०)
प्रतरेषु च सर्वेषु स्युर्विमानाः किलेन्द्रकाः । वृत्तास्तेभ्योऽनन्तरं च संस्थिता ये चतुर्दिशम् ॥३१॥ ते त्रिकोणाः प्रति पक्ति, त्रिकोणानन्तरं पुनः । चतुरस्रा विमानाः स्युस्तेभ्यः पुनरनन्तरम् ॥३२॥