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सौधर्मेशानयोस्तत्र, प्रथम प्रस्तटस्थितात् । उडुनाम्नो विमानेन्द्राच्चुर्दिशं विनिर्गताः ॥१६॥ पंक्तिरेकैका विमानद्वार्षष्टया शोभिता ततः । द्वितीयादि प्रस्तटेषु, ताश्चतस्त्रोऽपि पडक्तयः ॥२०॥ . एकै केन विमानेन, हीना यावदनुत्तरम् ।
एवं विमानेनकै कं, दिक्षु तत्रावतिष्ठते ॥२१॥
सौधर्म और ईशान देवलोक में प्रथम प्रस्तर (परत-तह) में उडु नामक इन्द्र विमान से चारों दिशा में बासठ विमान से शोभित एक-एक पंक्ति है इस तरह दूसरे आदि प्रत्येक प्रतर में इन्द्र विमान से चारों तरफ एक-एक विमान से कम की पंक्ति होती है, और इसके अनुसार जब अनुत्तर देवलोक तक पहुंचते चार दिशा के अन्दर एक-एक विमान होता है । (१६-२१)
पाडक्तेयानां विमानानामाद्यप्रतरवर्तिनाम् । तिर्यग्लोकानुवादेन, स्थानमेवं स्मृतं श्रुते ॥२२॥ देवद्वीपे तदेकै कं , नागद्वीपे द्वयं द्वयम् । ततश्चत्वारि चत्वारि, यक्षद्वीपे जिना जगु : ॥२३॥ अष्टाष्टौ भूव पाथोधौ, तानि षोडश षोडश । स्वयं भूरमण द्वीपे, स्वयंभू वारिधौ ततः ॥२४॥
प्रथम पंक्ति में विमानों का स्थान ति लोक के आधार पर शास्त्र में इस तरह से कहा है कि देव द्वीप के ऊपर एक-एक विमान है, नागद्वीप ऊपर दो-दो विमान है, यक्षद्वीप के ऊपर चार-चार विमान है, भूत समुद्र ऊपर आठ-आठ विमान . है, स्वयं भूरमण द्वीप पर सोलह-सोलह है और स्वयं भूरमण समुद्र के ऊपर इक्तीस-इक्तीस विमान है । (२२-२४)
एकत्रिंशदेक त्रिंशदग्रिमप्रतरेषु च ।
स्युर्विमानानि पाते यान्यधःस्थै पडिक्तगैः सह ॥२५॥
इस प्रकार श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा है और ऊपर के प्रतरों के विमान नीचे के विमानों की समान पंक्तियां ही हैं । (२५)