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प्रतर रूपी स्वस्तिक ऊपर मोती के समान तेरह प्रतर के मध्य में एक-एक इन्द्रक विमान होते हैं । (१२)
उडूप चन्द्र२ च रजतं३, वज्रं४ वीर्यमथापरम् ५ । वरूण६ च तथा ऽऽनन्दं ७ ब्रह्मदकांच्चन संज्ञकम् ॥१३॥ रूचिरंप० चंच्च संज्ञं ११ चारूणं१२ दिशाभिधान कम् १३ । त्रयोदशेन्द्रका एते, सौधर्मेशान नाक योः ॥१४॥ ...
सौधर्म-ईशान देवलोक में तेरह इंद्रक विमान होते है । उसके नाम इस प्रकार है :- १उडु, २-चन्द्र, ३- रजत, ४- वज्र, ५- वीर्य, ६- वरूण, ७- आनंद, ८- ब्रह्म, ६- कांचन, १०-रूचिर, ११- चंच, १२- अरूण और १३ दिशा है । (१३-१४)
सनत्कुमार माहेन्दर स्वर्गयोः समसंस्थयोः । द्वादश प्रस्तटाः षट् ते, बह्म लोके च केवले ॥१५॥
सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक की सम श्रेणि में रहा है । उसमें बारह प्रतर है और ब्रह्म नामक पांचवें देवलोक में छः प्रतर है । (१५) .
लान्तके प्रस्तटाः पन्च, शुक्रे चत्वार एव ते । सहस्रारेऽपि चत्वारः समश्रेणिस्थयोस्ततः . ॥१६॥ किलानतप्राणतयोरारणाच्युतयोरपि . ।
चत्वारश्चत्वार एव, प्रस्तटाः परिकीर्तिताः ॥१७॥ .
छठे लातक देव लोक में पांच प्रतर है । सातवें शुक्र देवलोक में चार प्रतर है आठवें सहस्रार देव लोक में चार प्रतर होते हैं और उसके बाद समश्रेणी में रहे नौ, दसवें आनत प्राणत तथा ग्यारहवें बारहवें आरण-अच्युत देवलोक में चार-चार प्रतर होते हैं । (१६-१७)
नव ग्रैवेयकाणां ते, पन्च स्वनुत्तरेषु च । . एको द्वाषष्टिरित्येवमूर्ध्वलोके भवन्त्यमी ॥१८॥
नौ ग्रैवेयक में नौ प्रतर होते है, और पांच अनुत्तर में एक प्रतर इस तरह ऊर्ध्व लोक में कुल बासठ (६२) प्रतर होते हैं । (१८)