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________________ (२८३) और अर्ध चन्द्राकार संस्थान में रहे ये दोनों देवलोक यदि साथ में कल्पना करने में आए तो पूर्ण चन्द्र के आकार में लगता है । (५-६) मेरोंदक्षिणातस्तत्र, सौधर्माख्यः सुरालयः । ईशान देवलोकश्च मेरोत्तरतो भवेत् ॥७॥ मेरू पर्वत के दक्षिण दिशा में सौधर्म नामक देवलोक है और उत्तर दिशा में ईशान देवलोक होता है । (७) प्राक्प्रत्यगायतावेतावुदग्दक्षिण विस्तृतौ । - योजनानां कोटि कोटयोऽसंख्येया विसतृतायतौ ॥८॥ पूर्व-पश्चिम लम्बाई धारण करने वाले और उत्तर दक्षिण में विस्तार धारण करने वाले ये दोनों देवलोक असंख्य कोडा कोडी योजन प्रमाण का लम्बाई चौड़ाई वाला है । (८) निकायंभूमिकाकाराः प्रस्तटाः स्युस्त्रयोदश । प्रायः परस्परं तुल्य विमानाद्यन्तयोस्तयोः ॥६॥ लगभग परस्पर तुल्य-विमान की आदि-अन्त वाले इन दोनों देवलोक में निवास भूमि के आकार वाले तेरह प्रतर होते हैं । (६) प्रत्येक मनयो यद्यप्ये ते सन्ति त्रयोदश । तथापि ह्येकवलयस्थित्या यदनयोः स्थितिः ॥१०॥ · तत्तयोः समुदितयोस्त्रयोदश विवक्षिताः । अन्येष्वप्येकवलयस्थितेष्वेवं विभाव्यताम् ॥११॥ ___यद्यपि इन दोनों देव लोक के अलग-अलग रहे तेरह प्रतर हैं फिर भी दोनों . की स्थिति एक वलयाकार से है । इससे दोनों के साथ में ही तेरह प्रतर की विवक्षा की है । अन्य देवलोकों में भी एक वलय में रहे प्रतरों की स्थिति इस तरह समझ लेना चाहिए । (१०-११) त्रयोदशानामप्येषां, मध्य एकैकमिन्द्रकम् । विमानं मौक्तिकमिव, प्रतरस्वस्तिकोपरि ॥१२॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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