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(२८२) छब्बीसवां सर्ग
ऊर्ध्व लोक का वर्णन जीयात् शङ्खेश्वरः स्वामी गोस्वामीवनभो भुवि। गावो यस्योर्ध्व लोकेऽपि, चेरू: क्षुण्ण तमोङ्कराः ॥१॥
जो आकाश रूपी पृथ्वी में सूर्य समान है उनकी वाणी रूपी किरण ऊर्ध्व लोक में अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट करने वाले श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ स्वामी की विजय हो । (१)
वैमानिक सुरावासशोभासंभारभासुरम् । स्वरूपमूर्ध्वलोक स्य, यथाश्रुतमथबुवे ॥२॥
अब मैं वैमानिक देवों के आवास की शोभा के समूह से देदीप्यमान ऊर्ध्वलोक का स्वरूप आगम के अनुसार कहता हूं. । (२)
योजनानां नवशत्या, रूचकोर्ध्वमतिकमे । तिर्यग्लोकान्तः स एव, चोर्ध्वलोकादिरिष्यते ॥३॥
रूचक प्रदेश से नौ सौ योजन ऊपर जाने के बाद तिर्यग़ लोक का अन्त आता है और वहीं से ऊर्ध्व लोक का प्रारंभ होता है । (३)
ततो न्यूनसप्तरज्जुप्रमाणः कथितः स च । ईशत्प्राग्भारोव॑भागे, सिद्धक्षेत्रावधिर्ततः ॥४॥
वह ऊर्ध्व लोक कुछ कम सात राजलोक प्रमाण है और उसकी अवधि इषत् प्राग्भागा ऊपर के भाग में सिद्धक्षेत्र तक है । (४) .
ततोर्ध्वं च रूचकाद्यरज्जोरन्तेप्रतिष्ठितौ । . सौधर्मेशाननामानौ, देवलोकौ स्फुरद्रुची ॥५॥ समश्रेण्या स्थितावर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थितौ । .. चिन्त्येते चेत्समुदितौ, तदा पूर्णेन्दु संस्थितौ ॥६॥
अब रूचक प्रदेश से ऊपर में प्रथम राजलोक के प्रथम विभाग के अन्दर स्फुरायमान कान्ति वाले सौधर्म और ईशान नामक दो देवलोक है, सम श्रेणि से रहे