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________________ (२८१) चरं ज्योतिश्चक्रमेव, नरक्षेत्राधि स्मृतम् । ततः परं चालोकान्तं, ज्योतिश्चक्रमवस्थितम् ॥२१४॥ स्थापना। इस तरह से मनुष्य क्षेत्र तक ज्योतिष चक्र चर है । उसके बाद अलोक तक स्थिर है । (२१४) (अढाई द्वीप के बाहर स्थिर ज्योतिषी वाले द्वीप समुद्र के विषय यत्र सन्ति नियताः सुधांश वस्तत्र भूरचल चारु चन्द्रिका । यत्र तीव्र वचयः सनातनास्तंत्र चातपवितानचित्रिताः ॥२१५॥ जहां चन्द्रमा स्थिर है, वहां चन्द्र की ज्योत्सना उस पृथ्वी पर स्थिर है और सूर्य स्थिर है वह पृथ्वी सूर्य के स्थिर अताप-विस्तार से चित्रित है । (२१५) विश्वश्चर्यद कीर्ति कीर्ति विजय श्री वाचकेन्द्रान्तिष - द्राज श्री तनयोत निष्ट विनयो श्री तेजपालात्मजः। काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे, सम्पूर्णः खलु पन्च विंशति तमः सर्गो निसर्गोज्जवलः ॥२१६॥ इति श्री लोक प्रकाशे ज्योतिश्चक वर्णनो माम पन्च विंशति तमः सर्गः ॥ ॥ग्रं० २५७ ॥ विश्व को आश्चर्य उत्पन्न करने वाले कीर्तिमान श्री कीर्तिविजय जी उपाध्याय के शिष्य और तेजपाल तथा राजश्री के पुत्र विनय विजय जी महाराज से रचित निश्चित जगत के तत्वों को प्रकाशित करने में दीपक समान इस काव्य में स्वाभाविक उज्जवल पच्चीसवां सर्ग पूर्ण हुआ है । (२१६)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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