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सुक्षेत्रे शुभतिथ्यादौ, पूर्वोत्तरादि सम्मुखम् । प्रव्राजनततारोपादिकं कार्यं विचलणैः ॥२०६॥
इस तरह ही श्री अर्हन भगवान की आज्ञा होती है कि - पाठ और दीक्षा आदि शुभ कृत्य के आश्रित अच्छे क्षेत्र में अच्छी तिथि में, पूर्व उत्तर दिशा सन्मुख दीक्षा व्रत उच्चारण आदि विचक्षण पुरुषों को करना चाहिए । (२०८-२०६)
तथोक्तं पन्चवस्तुके - - "एस जिणाणं आणां खेत्ताईया उ कम्मुणो भणिआ। . .
उदयाइकारणं जं तम्हा सव्वत्थं जइयव्वं ॥२१०॥"
पंच वस्तु ग्रन्थ में भी कहा है - 'श्री जिनेश्वर की भगवान की यह आज्ञा है कि कर्म के उदय आदि में क्षेत्रादि कारण होने से सर्वत्र इस तरहं प्रयत्न करना चाहिए । (२१०)
अहंदाद्याः सातिशयज्ञाना ये तु महाशयाः । ते तु ज्ञानबलेनैव, ज्ञात्वा कार्यगतायतिम् ॥११॥ अविनां वा सविनां वा, प्रवर्तन्ते यथा शुभम् । . नापेक्षन्तेऽन्यजनवन्मुहूर्तादिनिरीक्षणम् ॥२१२॥ तद्वद्विचिन्त्यापरेषां तु तथा नौचित्यमन्चति ।, मत्तेभस्पर्द्धयाऽवीनामिवाघांतो महाद्रुषु ॥२१३॥ इदमर्थ तो जीवाभिगम वृत्तौ।
अतिशय ज्ञानी अरिहंतादि महापुरुष ज्ञान बल से जिस कार्य सम्बन्धी सफल अथवा निष्फल भविष्य जानकर शुभकार्य में इस तरह से प्रवृत्ति करते हैं। परन्तु सामान्य मनुष्य के समान मुहूर्त आदि जानने की अपेक्षा उनको नहीं रहती । इस बात का चिन्तन कर अन्य जीव उस प्रकार करे तो उचित है। मदोन्मत्त हाथी की स्पर्धा से बकरी जैसे किसी महावृक्ष को बाथ भरना (घात करना) आलिंगन करने के समान यह प्रवृत्ति है । इस बात का भावार्थ श्री जीवाभिगम सूत्र की वृत्ति में कहा है । (२११-२१३)