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________________ (२७६) जब प्राणियों के जन्म नक्षत्रादि ग्रहों का ग्रहाचार (गोचर) अनुकूल होता है तब शुभ कर्म उदय में आता है। और वह अनुकूल होना शुभकर्म धन, स्त्री, आरोग्यता, तुष्टि पुष्टि, इष्ट समागम आदि द्वारा सुख को देता है । (२०२-२०३) एवं कार्यादिलग्नेऽपि, तत्तद्भावगता ग्रहाः । सुख दुःख परीपाके, प्राणिनां यान्ति हेतुताम् ॥२०४॥ इस तरह शुभाशुभ कार्य आदि के लग्न मुहूर्त में उस-उस भाव को प्राप्त करने वाला ग्रह सुख दुःख के फल में हेतु बनता है । (२०४) तथा ऽऽह भगवान् जीवाभिगम :"रयणियर दिण यराणं नक्ख ताणं महग्गहाणं च । चार विसेसेण भवे सुह दुक्ख वि ही मणु स्साणं ॥१॥" तथा श्री भगवान ने जीवाभिगम सूत्र में इस तरह कहा है : - 'चन्द्र सूर्य नक्षत्र और महाग्रह के संचरण विशेष होने से संसार में मनुष्य को सुख दुःख आदि उत्पन्न होते हैं ।' (१) अतएव महीयांसो; विवेकोजवल बेतसः । प्रयोजनं स्वल्पमपि, रचयन्ति शुभक्षणे ॥२०५॥ इसके लिए विवेक से उज्जवल चित्त वाले महा पुरुष छोटा भी कार्य शुभ समय में करते हैं । (२०५) ज्योतिःशास्त्रानुसारेण कार्य प्रवाजनादिकम् । शुभे मुहूर्ते कुर्वन्ति, तत् एवर्षयोऽपि हि ॥२०६॥ गृहीत व्रत निर्वाह प्रचयादि शुभेच्छवः । अन्यथांगी कृततत्तद्वतभंगादि सम्भवः ॥२०७॥ इसी लिए ही ग्रहण किये व्रत के निर्वाह तथा पुष्टि के लिए साधु पुरुष भी दीक्षा आदि कार्य ज्योतिष शास्त्रानुसार शुभ समय में करते है । और यदि इस प्रकार न करे तो स्वीकार किए व्रत आदि का भंग होने का संभव होता है । (२०६-२०७) .. इत्थमेवावतताऽऽज्ञा, स्वामिनामर्हतामपि । अधिकृत्य शुभं कृत्यं पाठप्रवाजनादिकम् ॥२०८॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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