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________________ (२७८) भावप्रशस्तवर्णगन्धस्पर्शरसादिकम् । भव च तिर्यङ्नरकादिकं प्राप्येति द्दश्यते ॥१६॥ इसी तरह अशाता वेदनीय (दुःख) द्रव्यादिक के आश्रित भोगना पड़ता है, उसमें तलवार और विष आदि द्रव्य, जेल-कैदखाना आदि क्षेत्र, प्रतिकूल ग्रह आदि समय रूप काल अप्रशस्त वर्ण गंध रस स्पर्श आदि भाव, और तिर्यंच नरक आदि भव-जन्म के प्राप्त करके अशाता वेदनीय का विपाक दिखता है । (१६६-१६७) शुभानां कर्मण तत्र, द्रव्य क्षेत्रादयः शुभाः । विपाक हेतवः प्रायोऽशुभानां च ततोऽन्यथा ॥१८॥ उसमें शुभ कर्म के विपाक का हेतु शुभ, द्रव्य, क्षेत्र आदि गिने जाते हैं तथा अशुभ कर्मों के विपाक का हेतु भूत अशुभ द्रव्यादि गिने जाते हैं । (१६८) ततो येषां यदाजन्म नक्षत्रादि विरोधभाक् । चार श्चन्द्रार्यमांदीनां ज्योतिः शास्त्रोदितो भवेत् ॥१६६॥ प्रायस्तेषां तदा कर्माण्य शुभानि तथा विधाम् । लब्ध्वा विपाक सामग्री, विपच्यन्ते तथा तथा ॥२००॥ इसमें जब जिन जीवों का जन्म नक्षत्रादि के विरोधी ज्योतिष शास्त्र में कहे . अनुसार सूर्य-चन्द्र गोचर होते हैं तब प्रायः उनका अशुभ कर्म उस प्रकार की सामग्री प्राप्त कर उसके अनुसार फल दिखता है । (१६६-२००) विपक्वानि च तान्येवं, दुःखं दधुर्महीस्पृशाम् । आधि व्याधि द्रव्य हानिकलहोत्पादनादिभिः ॥२०१॥ और उस विपाक को प्राप्तकर कर्म आधि, व्याधि, द्रव्य हानि, कलह आदि उत्पन्न करके जीवात्मा को दुःख देता है । (२०१) यदा तु येषां जनमांद्यनुकूलो भवेदयम् । ग्रहचारस्तदा तेषां शुभ कर्म विपच्यते ॥२०२॥ . तथा विपक्वं तद्दत्तेऽङ्गिनां धनाङ्गनादिजम् । आरोग्यतुष्टि पुष्ठीष्टसमागमादिजंसुखम् ॥२०३॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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