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________________ (२७७) श्रूयतामत्र सिद्धान्तरहस्यामृतशीतलम् । अनुत्तरसुराराध्यपराम्पर्याप्तमुत्तरम् ॥१६१ ।। विपाक हेतवः पन्च, स्युः शुभाशुभ कर्मणाम् । द्रव्यं क्षेत्रं च कालश्च भावो भवश्च पन्चमः ॥१६२॥ . यहा शंका का समाधान करते हैं - श्रुत के रहस्य जो नहीं जानता है और गुरु परम्परा की जिसको गंध (जानकारी) न हो ऐसे व्यक्तियों का ही ऐसे विपरीत वाक्य हो सकते हैं । यहां अनुत्तर वासी देवों के भी आराध्य देव श्री जिनेश्वर भगवान् की ऐसी परम्परा से प्राप्त होते अमृत व शीतल रहस्य रूप आगम सिद्धान्त को सुनते-शुभ और अशुभ कर्मो के विपाक-फल के हेतु पांच होते हैं - १- द्रव्य, २- क्षेत्र, ३- काल, ४- भाव और.५- भव (जन्म) है । (१६०-१६३) तथोक्तम्-"उदयक्खयक्खओवसमोवसमाजंचकम्मुणो भणिया। ... द्रव्यं खेतं कालं भावं च संपप्प ॥१६३॥" तथा शास्त्र में कहा है कि - कर्म के उदय, क्षय, क्षयोपशम और उपशमये द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव (जन्म) को प्राप्त करके ही होता है । (१६३) .. यथा विषच्यते सातं, द्रव्यं स्रक्चन्दनादिकम् । गृहारामादिकं क्षेत्रमनुकूल गृहादिकम् ॥१६४॥ वर्षा वसन्तादिकं वा, कालं भावं सुखावहम् । वर्ण गन्धादिकं प्राप्य, भवं देवनरादिकम् ॥१६५॥ युग्मं ॥ जैसे कि - साता (सुख) द्रव्य के आश्री है, पुष्पमाला और चन्दन आदि द्रव्य के कारण अनुभव होता है, उसी तरह अनुकूल घर और घर का उद्यान रूप क्षेत्र होता है वर्षा ऋतु, वसंत ऋतु आदि काल होता है । सुख देने वाला वर्ण, गंध आदि भाव होता है एवं देव मनुष्य आदि भव-जन्म को प्राप्त करके साता वेदनीय का विपाक भोगा जाता है । ये दृष्टान्त है । (१६४-१६५) विपच्यतेऽसातमपि, द्रव्यं खड्ग विषादिकम् । क्षेत्रं कारादिकं कालं, प्रतिकूलग्रहादिकम् ॥१६६॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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