SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२७६) प्राणियों को प्रायः सुख देता है और प्रतिकूल हो तो अत्यन्त पीड़ा का कारण बनता है । (१८४-१८५) इस प्रसंग पर एक विचारणीय प्रश्न के विषय में ग्रन्थकार ने कहा है । प्राणी को होने वाले सुख दुःख सब कर्माधीन है, ऐसी श्रेष्ठ मान्यता जैन शासन में है, फिर यहां सुख दुःखादि का निमित्त रूप में ज्योतिषी को क्यों गिनने में आया है ? इस माननीय प्रश्न का उत्तर ग्रन्थकार स्वयं अनेक सुन्दर मार्गदर्शन से देते ननु दुःख सुखानि स्युः, कांयतानि देहिनाम् । ततः कि मेभिश्चन्द्राद्यैरनुकूलै रूतेतरैः ॥१८६॥ आनुकूल्यं प्रातिकूल्यमागता अप्यमी किमु । शुभाशुभानि कर्माणि, व्यतीत्य कर्तुमीशते ? ॥१८७॥ ततो मुघाऽऽस्ताम परे, निर्ग्रन्थां निः स्पृहा अपि । ज्योतिः शास्त्रानुसारेण, मुहूर्ते क्षण तत्पराः ॥१८८॥ प्रव्राजनादि कृत्येषु प्रवर्तन्ते शुभाशयाः । स्वामी मेघकुमारादिदीक्षणे तत् किमैक्षत ? ॥१८६॥ चतुर्भि कलापकं ॥ यहां शंका करते हैं कि - प्राणियों को सुख और दुःख कर्म के कारण से आता है, तो फिर उसकी अनुकूल-प्रतिकूल सूर्य-चन्द्र का क्या प्रयोजन है ? अर्थात् अनुकूल अथवा प्रतिकूल चन्द्रादि सुख-दुःख के कारण कैसे बन सकता है ? अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता को प्राप्त करने वाला भी चन्द्र आदि से शुभअशुभ कर्म को लांघनकर क्यासुख दुःख देने की शक्ति धारण कर सकता है ? अरे ! दूसरे की बात छोड़ दो, निर्ग्रन्थ और निःस्पृह साधु मुनिराज भी ज्योतिष शास्त्र के अनुसार से मुहूर्त देखने में तत्पर बनकर शुभाशय वाले वे दीक्षादि कार्यों में प्रवृत्ति करते है, तो क्या भगवान श्री महावीर प्रभु ने मेघकुमार की दीक्षा देने में मुहूर्त देखा था ? (१८६-१८६) अत्रोच्यते ऽपरिचितश्रुतो पनिषदामयम् । अनाघातगुरु परम्पराणांवाक्यविप्लवः ॥१६०।,
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy