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________________ (२७२) अनेनान्तः पुर परिच्छे देनेन्दु दिवाकरौ । नित्यं परिवृत्तौ स्व स्व विमानान्तर्यथासुखम् ॥१६॥ सुधर्मायां संसदीन्दुसूर्यसिंहासने स्थितौ । ह्यद्यातोद्य नादमित्रैर्गीतिः स्फीतैश्च नाटकैः ॥१६१॥ भुन्जानौ दिव्य विषयोपभोगान् भाग्य भासुरौ । न जानीतो व्यतीतानि संवत्सर शतान्यपि ॥१६२॥ अन्तःपुर तथा उसके परिवार से नित्य घिरा हुआ ये सूर्य और चन्द्र इन्द्र अपने-अपने विमान के अन्दर सुखपूर्वक सुधर्म सभा में सूर्य और चन्द्र नाम के सिंहासन पर बैठकर सुन्दर बाजों की नाद से मिश्रत गीत सुनवें हुए और सुन्दर नाटक को देखते हैं इस प्रकार दिव्य विषय उपभोग को भोगते भाग्य से तेजस्वी सैंकड़ों वर्ष व्यतीत हो जाते हैं, उसे वे नहीं जान सकते हैं । (१६०-१६२) न शक्नुतः सुधर्मायां परं कत्तुं रतिक्रियाम् । तत्रासन्नजिनसक्थ्याशातनाभयभीत कौ ॥१६३॥ वहां नजदीक में रहे श्री जिनेश्वर भगवन्त के अस्थि की आशातना के भय से वे सूर्य और चन्द्र इन्द्र सुधर्मा सभा के अन्दर भोग नहीं भोगते हैं । (१६३) . सन्तिात्र माणवक चैत्य स्तम्भे स्वयम्भुवाम् । वाज्रिकेषु समुद्रगेषु, सक्थीनि शिवमीयुषाम् ॥१६४॥ यहां इस सुधर्मा सभा के अन्दर माणवक चैत्यस्तंभ में वज्रमय डब्बे में मोक्ष में गये हुए स्वयंभू श्री जिनेश्वरों की हड्डियां होती है । (१६४) तानिचेन्दोश्च मानोश्च परेषामपि नाकिनाम । वन्दनयानि पूज्यानि, स्तुत्यानि जिन चैत्यवत् ॥१६५॥ ये मोक्ष गये परमात्मा के अस्थि है, वह सूर्य-चन्द्र और अन्य भी देवताओं की मूर्ति के समान वंदनीय पूजनीय और स्तवनीय होती है । (१६५) . एवं ग्रहाणां नक्षत्र तारकाणामपि स्फुटम् । . चतुस्रोऽग्रमहिष्यः स्युः तासां नामान्यमूनि च ॥१६६॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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