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यद्वोत्पन्ने कार्यजाते प्रागालोचयति प्रभुः । यया स्फीतधिया संसत् साऽभ्यन्तरा सगौरवा ॥१३१॥
अथवा इन तीन सभा का दूसरे प्रकार से वर्णन होता है - कोई विशेष कार्य आ जाये उस समय इन्द्र महाराज जिस सभा के साथ में शुद्ध रूप में गहरा-गंभीर मंत्रणा-विचार करते हैं, वह गौरव संपन्न सभा अभ्यंतर कहलाती है। (१३१)
निर्णीतमेतदस्माभि, कृते चास्मिन्नयं गुणः । एतच्चव नैव कर्तव्यं, दोषोऽस्मिन् विहिते ह्ययम् ॥१३२॥ इत्थमालोचित्तं यया सह प्रपन्चयेत् । गुण दोषोद्भावनात्सा, मध्यमा नातिगौरवा ॥१३३॥
जो मध्यम पर्षदा होती है वह बहुत गौरवशाली नहीं होती, उसके साथ में इन्द्र महाराज ने जो मध्यान्तर पर्षदा साथ में निर्णय किया हो, उसे कहकर यह कार्य करने से यह गुण है । यह कार्य करने योग्य न हो, यह कार्य करने से नुकसान है इस तरह पूर्व में विचार की हुई बातों की विचारणा गुण-दोष को प्रगटाना, उसका विचार करना वह मध्यम पर्षदा है । (१३२-१३३) '. ... आलोचनागौरवात्तु, बाह्या बाह्या भवेत्सभा ।
कर्तव्यमेतद्युष्माभिरित्याज्ञामेवसाऽर्ह ति ॥१३४॥
विचारणा और गौरव से दूर रहने वाली बाह्य सभा कहलाती है जिसे इन्द्र महाराज तुम्हें ऐसा करना है - इस तरह आज्ञा ही करता है । इस प्रकार से भिन्न रूप में भी तीन सभा का स्वरूप समझना चाहिए । (१३४) ..
च्युतेचन्द्रेऽथवा भानौ यावन्नौत्पद्यतेऽपरः । तावदिन्द्र विरहिते, कालेतत्स्थानकस्थितिम् ॥१३५॥ .. सामानिकाः समुदिता श्चत्वारः पन्च चोत्तमाः । पालयन्ति राज्यमिव, शून्यं प्रधान पुरुषाः ॥१३६॥
जब चन्द्र (इन्द्र) अथवा सूर्य (इन्द्र) का च्यवन हो जाय और दूसरा इन्द्र उत्पन्न न हो वहां तक इन्द्र रहित समय में उस स्थान की स्थिति को जैसे राजा से शून्य-रहित राज्य होता है उस समय मन्त्री राज्य चलाता है, उसी तरह