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उपर्यर्द्ध तृतीयानि, शतान्यथ स्वभावतः । विमुच्य योजनान्यष्टाष्टै तेषां पार्श्वयोयो ॥१०३॥ परिभ्रमन्ति ताराणां, विमानानि भवेत्ततः । तेषां प्रागुदितं व्याधातिकं जघन्यमन्तरम् ॥१०४॥ .
व्याधातिक अंतर जघन्य से दो सौ छियासठ (२६६) योजन है और उसकी भावना-सम्बन्ध. इस प्रकार है। निषध पर्वत चार सौ योजन ऊंचा है उसके ऊपर पांच सौ उत्तुंग शिखर है। ये शिखर अधस्तले में विष्कंभ (चौड़ाई) लम्बाई में पांच सौ योजन है और मध्य भाग में चौड़ाई-लम्बाई से तीन सौ पचहत्तर (३७५) योजन है और ऊपर अढ़ाई (२५०) योजन है । अब इन शिखरों के दोनों तरफ स्वाभाविक रूप में ही आठ-आठ योजन छोड़कर तारा के विमान भ्रमण करते हैं, इससे प्रथम कहा है वह दो सौ. छियासठ (२६६) योजन का है वह व्याधातिक जघन्य अंतर होता है । (१००-१०४)
योजनानां सहस्राणि, द्वादश द्वे शते तथा । द्विचत्वारिंशदधिके, ज्येष्ठं व्यघातिकान्तरम् ॥१०॥
ताराओं का.अरस परस (एक दूसरे से) ज्येष्ठ व्याघातिक अंतर बारह हजार दो सौ बयालीस (१२२४२) योजन का होता है । (१०५)
एतत्तारा. विमानानां स्यान्मेरौ व्यवधायके । यद्योजन सहस्राणि, दशासौ विस्तृतायतः ॥१०६॥
ताराओं का ज्येष्ठ व्याघातिक अंतर मेरुपर्वत का व्यवधान से होता है, क्योंकि मेरु पर्वत की लम्बाई-चौड़ाई दस हजार योजन है । (१०६)
एकादश शतान्येक विंशान्यस्माच्च दूरतः । । भ्रमन्त्युभयतस्तारास्ततः स्यादुक्तमन्तरम् ॥१०७॥
मेरु पर्वत भी दोनों तरफ ग्यारह सौ इक्कीस (११२१) योजन दूर ताराओं का विमान परिभ्रमण करता है । इससे उक्त (१२२४२) योजन का उत्कृष्ट व्याघातिक अंतर होता है । (१०६)