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शिखर वाला हो ऐसा आभास होता है, और हर्षपूर्वक किया हुआ हिन हिनाहट शब्द द्वारा चारों तरफ आकाश को पूर्ण भरते उत्तर दिशा के अश्वरूप देवता होते हैं। (७७-८२)
सूर्योदयाङ्किता प्राची, यथाऽन्यदेहिनां तथा । ज्योतिष्काणां निश्चितैवं, न सम्भवति यद्यपि ॥८३॥ चन्द्रादीनां तथाऽप्येषां या दिग्गन्तुमभीप्सिता । . सा प्राची स्यान्निमित्तज्ञैः क्षुतादौ कल्प्यते यथा ॥८४॥ ततस्तदनुसारेण, दिशोऽन्या दक्षिणादिकाः । .. विमानवाहिनामेवं सूक्तः प्राग्दिग्विनिश्चयः ॥८५॥ . .
जिस तरह अन्य प्राणियों के लिए पूर्वादि दिशा अर्थात् सूर्योदय होता है वह पूर्व दिशा ऐसा निश्चित रूप है उसी तरह ज्योतिष्क के लिए निश्चित नहीं है । फिर भी चन्द्रादि को जाने के लिए जो दिशा इच्छित हो, उसे पूर्व दिशा समझना चाहिए । जैसे निमित्त शास्त्र वेत्ता छींक आदि में दिशा की कल्पना करते हैं उसी के अनुसार यह ज्योतिष्क के लिए निर्णित हुई एक पूर्व दिशा के आधार से अन्य दक्षिणादि दिशा निश्चय होता है । विमान वाही देव के विषय में भी कही गयी दिशाओं का निश्चय इस तरह कहना । (८३-८५)
षोडशैवं सहस्राणि, कृतसिंहादिमूर्तयः । . विमानान्यमृतांशूनां, वहन्ति त्रिदशाः सदा ॥८६॥
इस तरह से सिंहादि की आकृति सोलह हजार देव हमेशा चन्द्र के विमानों को वहन (उठाते) करते हैं। (८६)
अनेनैव दिक्क्रमेण, विमानान् भास्वतामपि । वहन्त्येतावन्त एव, सिंहाद्याकृतयः सुराः ॥८७॥
इसी दिशाओं के क्रम से सिंहादिआकृति को धारण करने वाले उतने ही सोलह हजार देव सूर्य के विमान को वहन करते हैं । (८७)
वहन्ति च विमानानि, ग्रहाणां तादृशाः सुराः । द्वे द्वे सहस्त्रे प्रत्याशं, सहस्त्राण्यष्टतेऽखिलाः ॥८॥