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________________ (२५४) ताइक्कर्मानु भावनानुभवन्तोऽपि दासताम् । स जातीयेतरेपूच्चैर्दर्शयिन्तः स्ववैभवम् ॥५८॥ ख्यातस्य नेतुरस्य स्मः संमता इति सम्मदात् । रथादिलग्ना धावन्तः सेवन्ते स्वमधीश्वरम् ॥५६॥ त्रिभिविशेषकं ।। ऐसा अनुभव प्रत्यक्ष रूप में दिखता है इसलिए असंगत नहीं है जैसे कि इस मनुष्य जगत में भी किसी का ऐसा नौकर तथा उस प्रकार के कर्माधीन दासत्व करता है फिर भी अपने सजातीय अन्य लोग में अपना सुख वैभव आदि का दिखावा करता है कि 'ऐसा विख्यात् और बड़े मनुष्यों का स्वामी है और यह इसका माननीय है ।' ऐसा प्रभाव डालकर आनंदित बना नोकर रथं आदि वाहनों में जोड़कर, उसके मालिक की सेवा करता है । फिर भी गौरव और आनंद का अनुभव करता है । (५७-५६) . नीचोत्तमानिकृत्यानि, प्रोक्तानिस्वामिना मनाक्।। धावन्तः पन्चषा एक पदे कुर्वन्ति हर्षिताः ॥६०॥ स्वामी द्वारा दिखाया गया सामान्य अथवा बड़े काम को एक साथ में पांच छः जन दौड़ते हुए हर्ष पूर्वक करते हैं । (६०). तथाह तत्वार्थ भाष्यम् - "अमूनि च ज्योतिष्क विमानानि लोक स्थित्या प्रसक्ता वस्थितगतीन्यपि ऋद्धि विशेष दर्शनार्थमाभियोग्यनाम कर्मोदयाच्च नित्यं गतिरतयो देववहन्ती ।'' ति ॥ . और तत्वार्थ भाष्य में कहा है कि "इस ज्योतिष्क के विमान और तथा प्रकार की लोक स्थिति के कारण से लगातार नियत गति वाले हैं, फिर भी ऋद्धि विशेष दिखाने के लिए और अभियोगिक नाम कर्म के उदय से अभियोगिक देवता हमेशा गति की रूचि वाले बनकर विमानों का वहन करते हैं ।" इति । तत्रापीन्दु विमानस्य, पूर्वस्यां सुभगाग्रिमाः । गोक्षीरफेनशीतांशुदधिशंख तलोज्जवलाः ॥६१॥ तीक्ष्णवृत्तस्थिरस्थलंदंष्ट्राङ्कुर वराननाः । रक्तोत्पलदलाकारलोला ललिततालवः ॥६२॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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