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(२५३)
तथोक्तम् - "नरखेत्ताउ बहिं पुण अद्ध पमाणा ठिया निच्चं ।"
'कहा है कि - नर-मनुष्य क्षेत्र के बाहर ज्योतिष्क के विमान अर्ध प्रमाण वाले और नित्य स्थिर रूप होते है ।'
योगशास्त्रे चतुर्थ प्रकाशवृत्तौ तु-"मानुषोत्तरात्परतश्चन्द्रसूर्या मनुष्य क्षेत्री य चन्द्र सूर्य प्रमाणा" इत्युक्त मिति ज्ञेयम् ।
___ जबकि योगशास्त्र के चौथे प्रकाश की वृत्ति में कहा है कि - 'मानुषोत्तर पर्वत के आगे रहे चन्द्र और सूर्य मनुष्य क्षेत्रीय चन्द्र और सूर्य के प्रमाण अनुसार ही जानना ।' इस तरह भिन्न-भिन्न मत है । .
निरालम्बान्यनाधाराण्यविश्रामाणि यद्यपि । चन्द्रादीनां विमानानि, चरन्ति स्वयमेव हि ॥५३॥ तथापी दृक्षाभियोग्यनामकर्मानुभावतः । स्फारितस्कन्धशिरसः सिंहाद्याकारधारिणः ॥५४॥ अपरेषु सजातीय हीनं जातीयनाकिषु । निजस्फातिप्रकटनादत्यन्तं प्रीतचेतसः ॥५५॥ · स्थित्वा स्थित्वाऽधो वहन्ते,निर्जरा अभियोगिकाः।
तदेक कर्माधिकृताः सर्वदाऽखिन्न मानसाः ॥५६॥ त्रिभि विशेषकं ॥
ये चन्द्रादि विमान आलम्बन रहित-आधार रहित और विश्राम रहित रूप स्वयंमेव लगातार चलते है । फिर भी इस प्रकार के अभियोग्य नामकर्म के प्रभाव से स्कंध-मस्तक के विस्तार को सिंहादि आकार को धारण करने वाले, अपने सजातीय और हीन जाति देवताओं में अपनी विशेषता प्रगट करने से अत्यन्त खुश हुए विमानों के नीचे-नीचे रहकर अभियोगिक देवता हमेशा इन विमानों को वहन-उठाया करते है । और अपना यह कार्य करने का अधिकार है, इससे व सर्वदा प्रसन्न मन वाले रहते हैं । (५३-५६)
प्रत्यक्ष वीक्ष्यमाणत्वान्न चैतन्नोपपद्यते । अस्मिन्मनुष्य लोकेऽपि, केचिद्यथा ऽऽभियोगिकाः ॥५७॥