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(२४६) बाढ मस्तु दूरतया मस्तकोपखिर्तिनाम् । वर्तुत्यत्व प्रति भासोऽधोवर्तिषु जनेष्वयम् ॥३४॥ यत्कपित्थ फलार्द्ध स्याप्यूद्धर्व दूरं कृत स्थितेः । परभागादर्शनतो वर्तुलत्मवेक्ष्यते ॥३५॥ . किन्तूदयास्तसमये, तिर्यक् चक्रमणे कथम् । न तथा तानि दृश्यन्ते, तिर्यक् क्षेत्र स्थितान्यपि ? ॥३६॥
यहां शंका करते हैं कि - ज्योतिष्क के विमान आधा कोठा की आकृति वाले कहते है उसमें जैसे कपित्थ (कैथ वृक्ष का फल) का आधा फल ऊंचा दूर रखने में आये तो ऊपर का भाग नहीं दिखने से अधोवर्ती लोगों को गोलाकार दिखता हे, वैसे अति स्थूल भी सूर्य-चन्द्र के विमान जब मस्तक के ऊपर भाग में आते है तब दूर और अधोवर्ती लोगों को गोलाकार दिखता है, वह सम्यक् प्रकार से है, परन्तु उदय और अस्त के समय में तो उसका संक्रमण तिर्छा होता है तो उस समय क्यों गोलाकारं दिखता है ? (३३-३६)
अत्रोच्यते :. समास्त्येन कपित्थार्द्ध फलाकाराण्यमूनि न ।
किन्त्वमीषां विमानानां, पीठानि तादृशान्यथ ॥३७॥ .. प्रासादाश्चैतदुपरि, तथा कथंचन स्थिताः । .यथा पीठैः सहाकारो, भूम्ना वर्तुलतां श्रयेत् ॥३८॥ एकान्ततः समवृत्त तया तु दूरभावतः ।
चन्द्रादिमण्डलाकारो, जनानां प्रतिभासते ॥३६॥ ... यहां शंका का समाधान करते हैं - ये सूर्य-चन्द्र के विमान सम्पूर्ण रूप में अर्ध कपित्थ (कैथ) फलाकार से है ऐसा नहीं है, परन्तु इन विमानों की पीठ उस आकार से होती है । इन पीठ ऊपर रहे जो प्रासाद-देव विमान है वह इस तरह रहे है जिसके कारण से भूमि ऊपर से देखते पीठ साथ में वे प्रासाद गोलाकार दिखते है अनुभव होते है । अतः दूर रहने वाले लोगों चन्द्रादि के मंडल के आकार एकान्त में गोल दिखता है । (३७-३६)