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(२४८)
मूल नक्षत्र को बाहर भ्रमण करने वाले दूसरे नक्षत्रों की अपेक्षा से समुद्र की दिश में कुछ बाहर भ्रमण करने से उसे बाह्य वाले कहलाते हैं। (२५-२७)
ज्योतिश्चके दशोपेतशतयोजनमेदुरे । नक्षत्र पट लांशो यश्चतुर्योजनमेदुरः ॥२८॥
ज्योतिष चक्र के भ्रमण को विस्तार एक सौ दस योजन का है, उसमें नक्ष पटल का अंश चार योजन का है । (२८)
तस्योपरितले स्वातिर्भरणी स्यादधस्तले ।
एवं नक्षत्रपटलं चिह्न श्चतुर्भिरङ्कितम् ॥२६॥ . .
इस नक्षत्र पटल में ऊपर विभाग में स्वाति, अधतल में भरणी, इसी तरा नक्षत्र पटल चार चिह्न से युक्त है । (२६)
इदमर्थतोजम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति वृत्तौ -
चर ज्योतिश्चक्रगता, अपि प्रोक्ता ध्रुवा स्थिराः । तत्पार्श्ववर्तिनस्तारास्तानेवानु भ्रमन्ति च ॥३०॥
इस बात के अर्थ से श्री जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति की वृत्ति में कहा है कि चलने वाले ज्योतिष चक्र में रहे भी जो ध्रुव तारा है वह स्थिर है और उसमें जो नजदीक तारा है उसके ही आस पास में भ्रमण करते हैं । (३०)
ज्योतिश्चक्रे चरन्त्यस्मिन्, ज्योतिष्काः पन्चधा सुराः । विमानैः स्वैश्चन्द्र सूर्यग्रहनक्षत्रतारकाः ॥३१॥
इस ज्योतिष चक्र में चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा - ये पांच प्रकार के ज्योतिष देवता अपने-अपने विमान में भ्रमण करते है । (३१).
पन्चानामप्यथै तेषां, विमानान्यनुकुर्वते । संस्थानेन कपित्थस्य, फलमुत्तानमर्द्धितम् ॥३२॥
ये पांच प्रकार के ज्योतिष्क के विमान उर्ध्व मुखी कोठ के आधे फल के समान आकार वाले होते हैं । (३२)
ननु ज्योतिर्विमानानि, कपित्थार्दा कृतीनि चेत् । सूर्य चन्द्र विमानानां, स्थूला नामपि तादृशाम् ॥३३॥