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__.. . (२४७) पूज्य आचार्य श्री हरिभद्र सूरि जी ने कहा है कि नीचे विभाग में भरणी आदि नक्षत्र है और ऊपर विभाग में स्वाति आदि नक्षत्र होता है ।' तथा उसकी टीका में कहा है कि - सात सौ नब्बे (७६०) योजन जाने के बाद प्रथम नीचे का पट है
और वहां भरणी आदि ज्योतिष का पटल आता है तथा ऊपर विभाग में स्वाति का पटल आता है जो कि अन्तिम है । इस बात का तत्व तो केवली भगवान जाने ! इस तरह संग्रहणी वृत्ति में कहा है। __योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश वृत्तावपि, अत्र सर्वोपरि किल स्वाति नक्षत्रं सर्वेषामधो भरणीनक्षत्रं सर्वदक्षिणो मूलः सर्वोत्तरश्चाभीचिरित्युक्त मिति ज्ञेयम्॥
आचार्य श्री हेमचन्द्र सूरी जी ने योगशास्त्र के चौथे प्रकाश की वृत्ति में भी सर्व से ऊपर स्वाति नक्षत्र और सर्व से नीचे भरणी नक्षत्र है सर्व से दक्षिण दिशा में मूल नक्षत्र और सर्व से उत्तर दिशा में अभीजित नक्षत्र कहा है ।
नक्षत्र पटले सर्वान्तरङ्गमभिजिद्भवेत् ।
यद्यप्यभिजिदादीनि, द्वादशान्तर . मण्डले ॥२४॥ नक्षत्र पटल के बीच में अभिजित् नक्षत्र होता है जो कि अभिजित् आदि क्षत्र बारहवां मंडल में है । (२४)
चरन्ति चारमृक्षाणि, मेरोर्दिशि तथाप्यदः । शेषैकादशनक्षत्रापेक्षायाऽन्तः प्रवर्तते ॥२५॥ तद्वन्मूलं. सर्वबाह्यं यद्यप्यष्टममण्डले । बहिश्चराण्युडूनिस्युर्मूगशीर्षादिकानि षट् ॥२६॥ तथाप्यपरबाह्यापेक्षयाऽम्भोनिधेर्दिशि । किन्चिबहिस्ताच्चरतिततस्ताद्दशमीरितम् ॥२७॥
नक्षत्र अपना चलन मेरू पर्वत की दिशा करते है, फिर भी यह अभिजित नक्षत्र शेष ग्यारह नक्षत्र की अपेक्षा से अन्दर भ्रमण करते है, तथा उसी तरह मूल नक्षत्र आठवां मंडल में सर्व से बाह्य है, फिर भी मृगशीर्ष आदि छः नक्षत्र बाहर भ्रमण करने वाले है, इस तरह अनेक नक्षत्र बाहर भ्रमण करने वाले है फिर भी
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