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अन्यान्य काष्टा श्रयणादावृत्ताभिर्निरन्तरम् । घटिकाभिर्ह रन्तीभिर्जनजीवातुजीवनम् ॥७॥ लब्धात्मलाभां दिवसनिशामालांसुबिभ्रतम् । कुर्वन्तं फलनिष्पत्तिं, विष्वक् क्षेत्रानुसारिणीम् ॥८॥ नानारक स्थितियुतं, नरक्षेत्रोरू कू पके । कालारघट्ट भ्रमयन्त्यर्क चन्द्रादिधूर्वहाः ॥६॥ . त्रिभि विशेषकं ।।
सूर्य चन्द्रादि वृषभ अन्य-अन्य दिशा के आश्रय से गोलाकार और निरन्तर लोगों के जीवन रूपी पानी का हरण करते घड़ी द्वारा प्राप्त किया है, अपना लाभ उन्होंने सार्थकता अनुभव करते दिन रात की हारमाला को अच्छी तरहं धारण करते अलग-अलग क्षेत्रों को अनुसरण फल निष्पत्ति को करते और अलगअलग आरा की स्थिति से युक्त काल रूपी अंरघट्ट-रहट को मनुष्य क्षेत्र रूपी विशाल कुए में प्ररिभ्रमण करता रहता है । (७-६)..
ज्योतिश्चक्रस्यास्य तारापटलं स्याधस्तनम् । योजनानां सप्तशत्या सनवत्या समक्षितैः ॥१०॥
ज्योतिष चक्र में सबसे नीचे तारा मंडल होता है जो कि समतल भूमि से सात सौ नव्वे (७६०) योजन ऊंचा होता है । (१०) ,
योजनैर्दशभिस्तस्मादूद्धवै स्यात्सूरमण्डलम् ।
अष्टभिर्यो जनशतैरे तच्च समभूतलात् ॥११॥
इससे दस योजन ऊपर सूर्य मंडल है, वह समतल भूमि से आठ सौ योजन ऊंचे होता है । (११)
अशीत्या योजनैः सूर मण्डलाच्चन्द्र मण्डलम् । अष्टशत्या योजनानां, साशीत्येदं समक्षितेः ॥१२॥
सूर्य मंडल से अस्सी योजन ऊंचाई पर चन्द्र मंउल आता है जो समतल भूमि से आठ सौ अस्सी योजन ऊंचा है । (१२)
नवत्या च योजनैस्तत्तारावृन्दादधस्तनात् । विंशत्या योजनैश्चन्द्रात्तारावृन्दं तथोद्धर्वगम् ॥१३॥ .