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(२४३) . पच्चीसवां सर्ग अथैतस्मिन्नेव तिर्यग्लोके सदा प्रतिष्ठतम् । वक्ष्ये चराचरं ज्योति श्चक्रगुरुपदेशतः ॥१॥
अब इस तिर्यग् लोक में हमेशा प्रतिष्ठित होकर रहने वाले चराचर ज्योतिष चक्र का वर्णन गुरु के उपदेश द्वारा मैं करता हूं । (१) .
मेरूमध्याष्टप्रदेशस्वरूपात् समभूतलात् । सप्तोत्पत्य योजनानां, शतानि नवतिं तथा ॥२॥ ज्योतिश्चक्रोप क्रमः स्यादती त्योद्धर्व ततः परम् ।
दशाढयं योजनशतमेति सम्पूर्णतामिदम् ॥३॥ .. मेरू पर्वत के मध्य आठ प्रदेश स्वरूप समभूतल से ऊंचे, सात सौ नव्वे योजन के बाद ज्योतिष चक्र प्रारम्भ होता है । और वहां से ऊपर एक सौ दस योजन में सम्पूर्ण होता है । अर्थात् नीचे से ६०० योजन है । (२-३)
. एकादशैकविंशानि, योजनानां शतान्यथ । . ज्योतिश्चक्रं भ्रमत्यर्वाक्; चक्रवालेन मेरूतः ॥४॥
: मेरू पर्वत से ग्यारह सौ इक्कीस (११२१) दूर रहा सम्पूर्ण ज्योतिष चक्र गोलाकार रूप में परिभ्रमण करता है।
सिष्ठत्य लोकतश्चार्वाग्, ज्योतिश्चक्रंस्थिरात्मकम् । एक दशैर्यो जनानां, नन्वेकादशभिः शतैः ॥५॥
इसी तरह अलोक से अन्दर (अलोक से आगे) ग्यारह सौ ग्यारह योजन दूर ज्योतिष चक्र स्थिर रहा है । (५) - एवं तत् सर्वतो मेरो!नार्द्धरज्जुविस्तृतम् ।।
दशाढयं यौजनशतं, स्यात् सर्वत्रापि मेदुरम् ॥६॥
इसी प्रकार वह ज्योति चक्र मेरू पर्वत से सर्व दिशा से कुछ कम अर्ध राज लोक और एक सौ दस योजन का विस्तार वाला सर्वत्र शोभायमान होता है। (६)