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परन्तु लोक स्थिति भंग हो जाने के कलंक के भय से प्रिया जगती द्वारा वह रूका हुआ रहता है । (३४१)
तस्याः पुरस्त्वविलया बलयाघनाब्धि, मुख्यामिथःसमुदिताउदितादिताथैः। ये रक्षयन्ति पर तोऽलमलोकसङ्गाद, रत्नप्रभांकुलवधूं स्थविराइवोच्चैः ॥३४२॥
. वसंत तिलका। जिसने पापों को पीस दिया है ऐसे भगवान फरमाते है कि उस स्वयंभूरमण समुद्र की आगे अन्तर रहित और परस्पर मिले हुए धनोंदधि, धनवान और तनवात के वलय रहे है । जिस प्रकार वृद्ध स्थविर कुलवधू का रक्षण करता है वैसे ही यह वलय आलोक के संसर्ग से चारों तरफ से रत्न प्रभा का सम्यक् प्रकार से रक्षण करता है । (३४१)
विश्वाश्चर्यदकीर्तिकीर्तिविजयश्रीवाचके न्द्रान्तिष- . द्राज श्री तनयोत निष्ट विनयो श्रीतेजपालात्मजः। काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जंगत्तत्व प्रदीपोप मेसर्गः पूर्ति मियाय संप्रति चतुर्विशो नि सर्गेज्जवलः ॥३४३॥ ॥ इति श्री लोक प्रकाशे चतुविंशति तमः सर्गः ॥
ग्रंथाग्रं ४२७ विश्व को आश्चर्य करने वाले कीर्ति बढ़ाने वाले श्री कीर्ति विजय जी उपाध्याय के अंते वासी तथा पिता तेजपाल और माता राज श्री के पुत्र श्री श्री विनय विजय जी उपाध्याय ने जगत के निश्चित तत्व की रचना की है, उसके जानकारी के लिए प्रदीप समान इस काव्य की असलियत उज्जवल लोक प्रकाश का चौबीसवां सर्ग सम्पूर्ण हुआ है । (३४३)
इति चौबीसवां सर्ग समाप्त