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(२४१)
एवमब्धिः सूर्यवरावभासोऽन्ते ततः परम् । देवद्वीपः स्थितो देववार्द्धि श्चावेष्टय तं स्थितः ॥३३६॥ नाग द्वीपस्तमभितो, नागाब्धिश्चत ततः परम् । यक्ष द्वीपस्तदने च, यक्षोदवारिधिस्ततः ॥३३७॥ . भूताभिधस्ततो द्वीपस्ततो भूतोदवारिधिः । स्वयं भूरमण द्वीपः स्वयंभूरणाम्बुधिः ॥३३८॥ अन्ते स्थितः सर्व गुरुः, कोडी कृत्याखिलानपि । पितामह इवोत्सङ्ग कीडत्पुत्रपरम्परः ॥३३६॥
इस तरह से सूर्यवराभास समुद्र तक समझना । उसके बाद देव द्वीप है उससे लिपटा हुआ देव समुद्र रहा है, उसके बाद नाग नाम का द्वीप है, फिर नाग समुद्र है उसके बाद यक्ष द्वीप है और यक्षो दवारिधि = (समुद्र) है उसके बाद भूतनाम का द्वीप और भूतोदवारिधि आता है उसके बाद स्वयंभू रमण द्वीप आता है और अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र आता है । यह अन्तिम रहा स्वयंभूरमण समुद्र मानो सबका गुरु हो अथवा तो सर्व द्वीप समुद्र को अपने गोद में लेकर उत्संग में क्रीड़ा कर रहे पुत्रों की परम्परा वाले पितामह दादा के समान शोभता है। (.३३६-३३६)
आसेवितोऽसौ जलधिर्जगत्या, वृद्धपतिः सत्कुलभार्ययेव। बलीपिनद्धः पलितावदातस, तरङ्गलेखाब्धिकफच्छंलेन ॥३४०॥
जैसे कुलीन भार्या द्वारा वृद्ध पति भी आसेवित होता है, वैसे जगति से यह समुद्र भी लिप्त हुआ-आसेवित है । समुद्र को दी हुई वृद्धपति की उपमा घटाते है समुद्र के पानी के कल्लोल रूपी वलय आता है और फेन रूपी कफ आता है ।
(३४०)
लोकं परीत्यायमलोकमाप्तु मिवोत्सुकोलोलतरोर्भिरचक्रैः। तस्थो चरूद्धःप्रिययाजगत्या, लोकस्थितिच्छेदकलङ्गभीतेः॥३४१॥( इन्द्रवज्रा)
सम्पूर्ण लोक को घेराव कर रखने वाला स्वयंभूरमण समुद्र आप्त गिना . जाता है वह अलोक को मिलने लोल तरंगों की श्रेणी द्वारा उत्सुक बना दिखता है