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यह रूचक पर्वत ऊंचाई में चौरासी हजार योजन है उसमें मूल में विस्तार दस हजार बाईस (१००२२) योजन है मध्य भाग में सात हजार तेईस (७०२३) योजन, ऊपर के विभाग में चार हजार चौबीस (४०२४) योजन का है। (३२६-३२७)
एवं महापर्वताः स्युः कुण्डला कृतयत्रयः । मोत्तरः कुण्डलश्च, तथाऽयं रूचकाचलः ॥३२८॥
इस तरह कुंडलाकृति (गोलाकार) से तीन महापर्वत है १- मानुषोत्तर पर्वत २- कुंडलपर्वत और यह ३- रूचक पर्वत है । (३२८) ___ तथोक्तं स्थानाङ्गे - "ततो मंडलिय पव्वता पं० तं० माणु सुत्तरे कुडलवरे रूअगवरे।"
श्री स्थानांग सूत्र में भी कहा है, तीन मंडलिक पर्वत कहे है - मानुषोत्तर, कुंडलवर और रूचक पर्वत ।'
तुर्ये सहस्त्रे मूनय॑स्य, मध्ये चतसृणां दिशाम् । . अस्ति प्रत्येकमेकैकं सुन्दरं सिद्धमन्दिरम् ॥३२६॥ -: इस पर्वत के चार हजार योजन से चार दिशा में एक-एक सुन्दर आकृति वाले सिद्ध मंदिर है । (३२६) . तानि चत्वारि चैत्यानि, नंदीश्वराद्रि चैत्यवत् ।
.स्वरूपतश्चतसृणां, तिलकानीव दिक् श्रियाम् ॥३३०॥
इन चारों सिद्ध मंदिरों का स्वरूप नंदीश्वर पर्वत के चैत्यालय के समान है और वह चार-दिशा रूपी लक्ष्मी के तिलक के समान शोभायमान है । (३३०) ___ चैत्यस्य तस्यैकैकस्य, प्रत्येकं पार्श्वर्द्वयोः ।
सन्ति चत्वारि, चत्वारि, कूटान्यभ्रङ्कषाणि वै ॥३३१॥
इन एक-एक चैत्यालय के दोनों तरफ चार-चार अत्यन्त ऊंचे शिखर हैं । (३३१)
विदिक्षु तस्यैव मूर्ध्नि, स्याच्चतुर्थे सहस्रके । .. एकै कं कूटमुत्रङ्गमभङ्गरश्रियाऽन्चितम् ॥३३२॥