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नन्दोत्तरकुरुर्देवकुरुः कृष्णा ततोऽपि च । कृष्णराजीरामारामरक्षिताः प्राक्क्मादभूः ॥२८५॥
आचार्य श्री जिनप्रभ सूरिकृत श्री नंदीश्वर कल्प में इस तरह कहा है - दक्षिण दिशा में रहे रतिकर पर्वत की आठ दिशा में शक्र की और उत्तर दिशा में रहे रतिकर पर्वत की आठ दिशा में ईशानेन्द्र की आठ महादेवियों की आठ राजधानियां कही है। इन प्रत्येक राजधानियों का लाख-लाख योजन का अन्तर हैं, लाख योजन के प्रमाणवाली है और श्री जिन भवन मंदिर से भूषित है । तथा सुजाता, सौमनसा, अर्चिमाली, प्रभाकरा पद्माशिवा, शची, अंजना, भूता, भूतावतंसिका, गोस्तूप सुदर्शना, अमला, अप्सरा, रोहिणी, नवमी, रत्नोच्चया, सर्वरत्ना, रत्न संचया, वसु वसुमित्रि का, वसु भागा, वसुन्धरा, नन्दोत्तरा, नंदा, उत्तर कुरु, देव कुरु, कृष्णा, कृष्णराजी, रामा राम रक्षित, इस तरह से पूर्व दिशा के क्रमानुसार नगरियां है इत्यादि । (२८०-२८५) :
षोडशैवं राजधानी चैत्यानि 'प्राक्तने मते । मतान्तरे पुनात्रिशदेतानीति निर्णयः ॥२८६॥
इस राजधानी के चैत्यालय पूर्व मतानुसार सोलह है और मतान्तर अनुसार बत्तीस चैत्य है । (२८६)
तथाह नन्दीश्वर स्तोत्र कार - . , इ अ वीसं बावन्नं च जिणंहरे गिरि हिसरेसु संथुणिमो । इंदाणिरायहाणिसु बत्तीसं सोलह व वंदे ॥२८७॥
श्री नन्दीश्वर स्तोत्रकार ने कहा है कि - गिरि के शिखर ऊपर बीस और बावन मंदिरों की स्तवना करता हूं । और इन्द्राणी की राजधानी में और सोलह जिन चैत्य-मंदिरों को वंदन करता हूं (२८७)
"एतत्सर्वमप्यर्थतो नन्दीश्वर स्तोत्रं सर्व सूत्रतोऽपि योग शास्त्र वृत्ता वप्यस्ति ।"
यह सारे अर्थ से और नंदीश्वर स्तोत्र में सूत्र से तथा श्री योगशास्त्र की वृत्ति में भी कहा है।