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(२२८)
अष्टाप्येवं राजधान्योऽनयो दिशां चतुष्टये ।
अष्टानां मुख्य देवीनां वन पाणे: सुरेशितुः ॥२०॥
इन दो रतिकर पर्वत की चारों दिशा में रही आठ राजधानियां सौधर्मेन्द्र की आठ अग्रमहिषियां (इन्द्राणी) की है । (२७०)
अथचोत्तर पूर्वस्यां योऽसौ रतिकराचलः । कृष्णा देव्यास्ततः प्राच्यां, पुरी नन्दोत्तराभिधा ॥२७१॥ दक्षिणस्यां कृष्ण राज्यादेव्या नन्दाभिधा पुरी । . पश्चिमायां तु रामायाः पुर्युत्तरकुराभिधा ॥२७२॥ उदग्रामरक्षितायाः पुरी देवकु राभिधा । . योऽप्युत्तर पश्चिमायां शैलो रतिकरस्ततः ॥२७३॥ .
अब उत्तर पूर्व के बीच ईशान कोने के रतिकर पर्वत की पूर्व दिशा में कष्णा देवी की नंदोत्तरा नाम की नगरी है, दक्षिण दिशा में कृष्णराजी देवी की नंदा नाम की नगरी है, पश्चिम दिशा में राम देवी की उत्तरा कुरु नाम की नगरी है और उत्तर दिशा में रामरक्षिता देवी की देवकुरु नाम की नगरी है। (२७१-२७३)
वसुदेव्या राजधानी, प्राच्यां रत्नाभिधा भवेत् । याम्यां तु वसुगुप्तायाः रलोच्चयाभिधा पुरी ॥२७४॥ प्रतीच्या वसुमित्रायाः सर्व रत्नाभिधा पुरी । ..
वसुन्धरायाश्चोदीच्या नगरी रलसंचया ॥२७५॥
उत्तर और पश्चिम के मध्य दिशा वायव्य कोन में जो रतिकर पर्वत है उसकी पूर्व दिशा में वसुदेवी की रन नाम की राजधानी है, दक्षिणा दिशा में वसुगुप्ता देवी की रत्नोच्चया नाम की नगरी है, पश्चिम दिशा में वसु मित्रा देवी की सर्वरत्ना नाम की नगरी है, और उत्तर दिशा में वसुन्धरा देवी की रत्न संचया नाम की नगरी है । (२७४-२७५)
एता ईशानेन्द्र देवीराज धान्योऽष्ट पूर्ववत् । । एकै कार्हच्चैत्यलब्धसुषमाः षोडशाप्यम् ॥२७६ ॥