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धारण करते है उससे बाह्य अभ्यन्तर उज्जवलता के द्वारा शरद् ऋतु के सरोवर का अनुकरण किया था अर्थात् जैसे शरदकाल के अन्दर सरोवर में पानी ऊपर नीचे निर्मल उज्जवल होता है और ऊपर के बगल आदि बैठे हुए होने से त्रिधा - तीन प्रकार दिखते है, वैसे यहां लोग भी तीन प्रकार की उज्जवलता धारण करते थे । तत्काल नाश हुए अंतर के पापों की परा वृत्ति न हो जाय ऐसे प्रकार के भय से ही मानो उत्तरासंग धारी-दुपट्टाखेस कई जनो द्वारा मुख कोश से मुख ढाकने में आता था । महा मोह राजा के प्रताप और यश को चूर्णित करने के लिए ही मानो सजे-तैयार न हुए हो । ऐसे कई पूजा के अर्थियों के द्वार चंदन की साथ में कर्पूर और कुंकुम (रोली) घोंटने में आया था । घिसने वाले घिस घिस कर तैयार किया विलेपन रस से लबालब भरा हुआ कचुले को कई ने हृदय स्थान पर धारण कर रखा था, क्योंकि हृदय में नहीं समाते भक्तिराग ही मानो कठोर रूप में बाहर प्रकाशित हो रहा था, तथा कोई विविध प्रकार के वर्ण वाले पुष्पों की बड़ी-बड़ी मालाओं के समूह के बहाने से हाथ में ली हुई अद्भुत कल्याण की श्रेणि का आश्रय करते थे ।
इस तरह अनेक चेष्टायें प्रवृत्तियों में लगे हुए, वंदन कर रहे थे, पर्युपासना कर रहे थे, पूजा में परायण पूजा के अर्थी सुर, असुर, विद्याधरों द्वारा यह प्रासाद मंदिर चारों तरफ से शोभायमान हो रहा है 1 (२३५-२४०)
अर्हत्कल्याणकमहचिकीर्षयाऽऽगताः सुराः ।
इह विश्रम्य संक्षिप्तयाना यान्ति यथेप्सितम् ॥ २४१ ॥
श्री अरिहंत परमात्मा के कल्याणक महोत्सवों का करने की इच्छा से आए हुए देवता यहां नंदीश्वर द्वीप के अन्दर विश्राम कर के वाहन - विमानादि को संक्षेप करके इच्छित स्थान में जाते हैं । (२४१ )
ततः प्रत्यावर्त्तमानाः कृत कृत्या इहागताः ।
रचयन्त्यष्ट दिवसान् यावदुत्सवमुच्चकैः ॥ २४२ ॥
वहां से वापिस जाकर कल्याणक महोत्सव भव्याति भव्य रूप में मनाकर कृत कृत्य बने वे देवता यहां पर आकर आठ दिन का श्री जिनेन्द्र भक्ति का महा उत्सव करते हैं । (२४२ )