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पूर्व दिशा में देव नाम का द्वार है, जिसके अधिष्ठाता देव नाम का देव है दक्षिण दिशा में असुर नाम का द्वार है उसका अधिष्ठाता असुर नामक देव है । पश्चिम दिशा में नागनामक द्वार है उसका अधिष्ठायक रक्षण हार नाग नामक देव है, और उत्तर दिशा में सुवर्ण नामक द्वार है जिसका रक्षक अधिष्ठायक सुवर्णदेव है । (१६७-१६८)
योजनानि षोडशैतदेकै कं द्वारमुच्छ्रितम् ।। योजनान्यष्ट विस्तीर्ण, प्रवेशे तावदेव च ॥१६६॥.
इनमें प्रत्येक द्वार सोलह योजन ऊंचा आठ योजन विस्तृत और प्रवेश भाग के उतना ही आठ योजन है । (१६८) .
प्रतिद्वारमथै कै कः पुरतो मुखमण्डपः । . .
चैत्यस्य यो मुखे द्वारे पट्टशालासमो मतः ॥२००॥
अब इस प्रतिद्वार के आगे विभाम में एक-एक मुख मंडप है, जो कि चैत्य के मुख रूप द्वार में पट्टशाला समान दिखता है । (२००)
तस्यापि पुरतः प्रेक्षामण्डपः श्रीभिरद्भुतः । प्रेक्षा प्रक्षेणकं तस्मै, गृहरूपः स मण्डपः ॥२०१॥
इस मुख मंडप के आगे भी प्रेक्षा मंडप है जो शोभा से अद्भुत है इसे प्रेक्षा मंडप क्यों कहते हैं ? उसे कहते हैं प्रेक्षण करना अर्थात् अच्छी तरह चारों तरफ का देखना वह प्रेक्षा कहलाता है। उसके लिए मानों यह गृह आश्रय रूप होने से यह प्रेक्षा मंडप कहलाता है । (२०१)
योजनानां शतं दीघौं, पन्चाशत्तानि विस्तृतौ । योजनानि षोडशोच्चो, त्रिभिारैमनोरमौ ॥२०॥
ये मुख मण्डप और प्रेक्षामण्डप दोनों एक सौ योजन लम्बे है पचास योजन विस्तार वाले हैं सोलह योजन ऊंचे है और तीन द्वार से मनोहर है । (२०२)
तथोक्तं जीवाभिगम वृत्तौ - "मुख मण्डपमानां प्रत्येक प्रत्येक त्रिदिशं-तिसृषु दिक्षु एकैक भावेन त्रीणिद्वारणि" जीवाभिगम सूत्रादर्श तु 'तेसिणं मुह मंडवाणं चउद्दिसिं चत्तारि दाग पण्णत्ता' इति दृश्यते ।'