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________________ (२१३) स्पष्ट अष्ट मंगल द्वारा विशिष्ट दिखता इन मंदिरों की सेवा करने वाले प्राणियों की कई करोड मंगल श्रेणी को विस्तार वाले है । (१६२) प्रीत्योन्नतपद प्राप्तेन्त्यद्भिरिव केतुभिः । त्वरितं प्रोल्लसभ्दक्तींनाह्यन्त इवाङ्गिनः ॥१६३॥ . उन मंदिरों पर लहराती ध्वजाओं का उत्पेक्षा रूप में वर्णन करते कहते हैं कि - इन मंदिरों के शिखर पर उत्तंग-स्थान की प्राप्ति होने से प्रीति द्वारा मानो नृत्य कर रही हो, ऐसी ध्वजाएं उछलती भक्तिवाले लोगों को सत्वर बोल रही है। (१६३) स्थिताः सिंह निषदनाकाराः स्फारामलत्विषः। भव्याघघोरमातङ्गघटामिव जिघांसवः ॥१६४॥ षभि कुलकं ।। बैठे सिंह के आकार वाले सुविशाल और निर्मल तेज वाले उस जिनेश्वर भगवान के मंदिर मानो भव्य पुरुषों के पापरूपी भंयकर गज घटा को मारने की इच्छा वाला हो इस प्रकार दिखता है । (१६४) तथा :- "अजंणगपव्वयाणं सिहरतलेसुं हवंति पत्तेयं । .: अरिहंताययणाई सीहणिसायाइं तुंगाइं ॥१६५॥" इस विषय में शास्त्र में कहा है कि - प्रत्येक अंजन पर्वत के शिखर ऊपर सिंह निषधाकार में उतुंग अंरहित परमात्मा का आयतन (मंदिर) है । (१६५) द्वारैश्चतुर्भिः प्रत्येकं ते विभान्ति सुकान्तिभिः । . चतुर्गतित्रस्तलोकत्राण दुर्गाइवोभ्दटाः ॥१६६॥ सुशोभित कान्तिवाले ये जिन मन्दिर चार द्वार से शोभायमान है वह चारगति से त्रस्त-डरे हुए लोगों का रक्षण करने के लिए किले समान शोभते है। (१६६) प्राच्यां देवाभिधं द्वारं, तद्भवेद्देवदैवतम् । असुराख्यं दक्षिणस्यां, द्वारं चासुरदैवतम् ॥१६॥ पश्चिमायां च नागाख्यं, तन्नागामररक्षितम् । उत्तरस्यां सुवर्णाख्यं सुवर्ण सुररक्षितम् ॥१६८॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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