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________________ (२१२) . श्री स्थानांग सूत्र की वृत्ति में भी कहा है कि - मचकुंद का फूल निर्मल शंख और चन्द्र समान दधि पर्वत सोलह है, इससे थोड़े दूर सुवर्ण वर्णीय बत्तीस रतिकर पर्वत है । (१८७) अंजणगाइ गिरीणं नाणामणिपज्जलंतसिहरेसु । बावनंजिणणिलया मणि रयण सहस्स कूड बरा ॥१८८॥ . - अंजन गिरि पर्वत के सभी गिरिवर के विविध प्रकार के मणि रत्न कान्ति से युक्त देदिप्यमान शिखरों पर बावन श्री जिनेश्वर भगवान के मंदिर है जो कि - मणि रत्न के सहस्रकूटों से शोभायमान है । (१८८), प्रासादास्ते योजनानां, भवन्ति शतमायताः । ... पन्चाशतं ततास्तुङ्ग, योजनानि द्विसप्ततिम् ॥१८६॥ वे जिन मंदिर सौ योजन लम्बे, पचास योजन चौड़े और बहत्तर योजन ऊंचे हैं। (१८६) हाव भावाद्यभिनय विलासोल्लासिपुत्रिका । दिदृक्षानिश्चलैर्दिव्याङ्गनावृन्दैरिवान्चिताः ॥१६॥ अब यहां छः श्लोक के कुलक द्वारा इन मंदिरों की रमणीयता का संकेत रूप दिया है, पाषाण से बनी पुतलियों में ऐसी आकार बनायी गई है मानो हावभावादि अभिनय को देखने की इच्छा से खंडी हुई दिवांगवाए न हो इस तरह भ्रान्ति-भ्रम होता है । (१६०). चित्रोत्कीर्णैर्ह यगजसुरदानवमानवैः । अद्भुतालोक नरसस्थितत्रिभुवना इव ॥१६१॥ इन जिन मंदिरों में घोड़ा, हाथी, देव, दानव, मानव के ऐसे हूबहू वैसा ही चित्र नक्कासी करने में आए है कि जो मानो मंदिर की अद्भुत देखने के लिए तीन भवन एकत्रित हुए न हो ? इस तरह लगता है । (१६१) अष्टभिर्मङ्गलैः स्पष्टं, विशिष्टा अपि देहिनाम् । सेवाजुषां वितन्वानाः कोटिशो मङ्गलावली: १६२॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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