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श्री जीवाभिगम सूत्र की टीका आदि ग्रन्थों में कहा है कि चार बावडियों के अन्तर में दो-दो रतिकर पर्वत होते हैं । (१८२)
षोडशानां वापिकानां षोडशस्वन्तरेष्वमी । द्वात्रिंशद् द्विद्विभावेन् पद्मरागनिभाः ॥१८३॥ .
इन सोलह बावड़ियों के सोलह अन्तर में दो-दो रतिकर पर्वत हैं इससे कुल बत्तीस रतिकर पर्वत होते हैं । ये बत्तीस पर्वत पद्म राग की कान्ति वाले और सब एक समान है । (१८३) .
"इति प्रवचन सारोद्वार सूत्र वृत्यभिप्रायेण एते पद्मरागमयाः ।स्थानाङ्ग वृत्यभि प्रायेण तु सौवर्णा इति ।" .
'प्रवचन सारोद्धार की वृत्ति के अनुसार ये सभी पर्वत पद्मराग रत्नमय है । जब स्थानांग वृत्ति के अभिप्राय से ये पर्वत सुवर्ण जैसी कान्ति वाले है ।' . उपर्येकै कमेतेषां, सर्वेषामपि भूभृताम् । . चैत्यं नित्याहतां चारू चलाचलध्वजान्चलम् ॥१८४॥
इन प्रत्येक पर्वत के ऊपर पवन-वायु से लहराती ध्वजा से शोभता शाश्वत प्रतिमा का एक-एक चैत्यालय है । (१८४)
चत्वारो दधि. खस्था, एकैकोन्जन भूमृत । अष्टानां च रतिकराद्रीणामष्टौ जिनालयाः ॥१८५॥ इत्येवमेकै क दिशि, त्रयोदश त्रयोदश ।
एव संकलताश्चैते, द्विपन्चाशन्जिनालयाः ॥१८६॥ - चार दधिमुख पर्वत के ऊपर चार मंदिर, एक अंजन गिरि पर एक और आठ रतिकर पर्वतों पर आठ जिनालय । इस प्रकार एकएक दिशा में तेरह-तेरह जिन मंदिर हैं । और सब मिलाकर कुल बावन जिनालय होते हैं । (१३४४-५२)। (१८५-१८६)
स्थानांग वृत्तावप्युक्तं - "सोलस दहि मुह सेला, कुंदामल संख चंद संकासा । कणयनिभा बत्तीसं रइकरगिरिबाहिरा तेसिं ॥१८७॥"