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मतान्तर में नौ हजार चार सौ (६४००) योजन का जो स्थूल व्यास पृथ्वी तल का है, उसमें से घटते-घटते ऊपर आने तक एक हजार योजन हो जाता है उसमें से शिखर तक नीचे से ऊपर जाते आठ हजार चार सौ (८४००) योजन घटता है और वह चौरासी सौ (८४००) को चौरासी हजार (८४०००) से भाग देना, उन दोनों का भाग प्राप्त नहीं होने से उन दोनों का (८४०० तथा ८४००० के) शून्य का अपवर्तन करने से (८४००/८४००० - १/१०) १/१० योजन प्राप्त होता है । (१४७-१४६)
यद्वा प्राग्वभ्द्राज्यराशिर्दशघ्रः स्याल्लवात्मकः । सहस्राश्चतुर शीतस्तेषां भागे च लभ्यते ॥१५०॥ दशमो योजनास्यांशो भाज्यभाजकसाम्यतः । क्षय वृद्धौ मानमेतत् स्योदरोहवरोहयोः ॥१५१॥
अथवा पहले के समान भाज्य राशि १/१० होते है, उसे भाग से (८४.००) प्राप्त होता है । भाजक और भाज्य की समानता होने से योजना का दसवां भाग आता है वह आरोह और अवरोह में क्षय और वृद्धि में एक अंश समझना । (१५०-१५१)
एकत्रिंशत्सहस्राणि, योजनानां शतानि षट् । त्रयोविंशानि परिधिर्भवत्येषां महीतले ॥१५२॥
इस पर्वत का भूतल ऊपर परिधि इकतीस हजार.छ: सौ तेईस (३१६२३) योजन की होती है । (१५२) .
योजनानां सहस्रानि, त्रीणि द्वाषष्टियुक् शत्तम् । साधिकं मूर्ध्नि परिधिः, प्रज्ञप्तः परमर्षिभिः ॥१५३॥ .
इस पर्वत के शिखर ऊपर की परिधि ज्ञानी महर्षियों ने तीन हजार एक सौ बासठ (३१६२) योजन से कुछ अधिक कहा है । (१५३) ।
अथैषामन्जनाद्रीणां, प्रत्येकं च चतुर्दिशं । गते लक्षे योजनानां लक्षमायतविस्तृताः ॥१५४॥ पुष्करिण्यश्चतस्रः स्युरूद्विद्धा दशयोजनीम् । निर्मत्स्यस्वच्छ सलिलोल्ल सत्कल्लोल वेल्लिताः ॥१५५॥ अब इन प्रत्येक अंजन पर्वतों की चारों तरफ, एक-एक लाख योजन दूर चार