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दस हजार योजन विस्तृत और शिखर ऊपर एक हजार योजन चौड़ा है । तथा मतांतर से यह अंजनगिरि पर्वत पृथ्वीतल ऊपर नौ हजार चार सौ (६४००) योजन चौड़ा है और ऊपर एक हजार योजन चौड़ा है । (१३५ से १३८)
"तथोक्तं स्थानाङ्गवृत्तौ - इहांग्जन का मूले दश योजन सहस्राणि विष्कम्भेणेत्युक्तं द्वीप सागर प्रज्ञप्ति संग्रहण्यां तूक्तं -
नव चेव सहस्साई चतारि य होंति जोअणसयाई । । ।
अंजणग पव्ययाणं धरणि यले होई विक्खंभो ॥१॥ इति ।
तदिदं मतान्तर मित्यवसेयं, एवमन्यत्रापि, मतान्तर बीजानि तु केवलि गम्यानीति ॥"
स्थानांक सूत्र की वृत्ति में इस प्रकार कहा है कि - यह अंजन गिरि पर्वत . मूल में दस हजार योजन की चौड़ाई वाला है । द्वीप सागर प्रज्ञप्ति संग्रहणी में कहा है कि -
नौ हजार चार सौ योजन का अंजन पर्वत की धरणीतल के ऊपर का विष्कंभ होता है । (१) इसी प्रकार अन्य स्थान पर भी मन्तांतरों की बातें आती हैं, वह केवली गम्य है, वैसा समझ लेना चाहिए। .
यस्मिन्मते सहस्राणि, भूतले दस विस्तृताः ।। वृद्धिक्षयौ मते तस्मिन्, योजनं योजनं प्रति ॥१३६॥ अष्टाविशांशत्रितयमुपंर्यारोहणे क्षयः । . तावत्येवोपरितलाद् वृद्धिः स्यादवरोहणे ॥१४०॥
जिसके मत में पृथ्वी तल ऊपर दस हजार योजन का विस्तार है उनको प्रत्येक योजन में वृद्धि-क्षय होती है वह इसके अनुसार है कि - ऊपर चढ़ते योजन में ३/२८ योजन का क्षय होता है जबकि नीचे उतरते उतनी ही ३/२८ योजन की वृद्धि होती जाती है । (१३६-१४०) भावना त्वेवं - महीतलगत व्यासात्, सहस्रदशकात्मकात्।
सहस्राण्यपचीयन्ते, नवोपरितलावधि ॥१४१॥